Sunday, May 26, 2024

पूर्व वर्ती

बरसों बाद गया था मैं उस दफ्तर में

 जहाँ कभी मैंने बहाए थे पसीने                                  

सब कुछ बदल गया था                                                 

 नए कर्मचारी थे और हाकिम भी                                 

मैं जिस कुर्सी पर बैठता था                                           

 वह भी बदल गयी थी                                                    

एक्जीक्यूटिव कुर्सी पर विराजमान थे नए प्रभारी                

उनके कक्ष में लगे प्रबंधकों की सूची में                             

मेरा नाम बारहवें स्थान पर था                                          

नए प्रभारी सोलहवें क्रमांक पर थे                                    

आगे की जगह उनके बाद वालों के लिए खाली थी                

मैंने उन्हें ऑफिस की कायापलट के लिए बधाई दी

उन्होंने अपनी सफाई दी                                                

कहा,                                                                      

"पूर्ववर्तियों ने चौपट कर रखा था"                                  

अब मेरे लिए कुछ बोलने के लिए नहीं बचा था                    

बिना परिचय दिए मैं वापस चला आया

रात भर सोचता रहा                                                    

मेरे ग्यारह पूर्ववर्तियों ने कितनी मिहनत की होगी                

उनके छोड़े कामों को मैंने सर आँखों पर लिया था                

तभी तो मेरा वहाँ पसीना बहा था

पुल

 मोरबी में हुए पुल हादसे से जोड़ती हुई एक कविता


एक पुल बनाया था पिताजी ने

दो कुलों को जोड़ा था

त्याग के पाए थे

ममता के साए थे

मज़बूत और भरोसेमंद

एक दूसरे के लिए फ़िक्रमंद

विश्वास के लगे थे सरिए

मिलने जुलने के थे ज़रिए

और थे सद्भाव के गारे 

सह लेते थे दूरदराज़ के रिश्ते हमारे


जब हट गया उनका सर से साया

पुल पहली बार थरथराया 

आने जाने से होने लगा कम्पन

मिलने जुलने पर भी नहीं खिलता मन

रिक्त हो गया मन का एक कोना

अपने हिस्से रह गया बस रोना

हिले थे पुल के पाए

कौन किसका हिस्सा खाए


किसी ने नहीं सोचा इस पुल की मरम्मत हो

जो आगे आये उनमें कोई शराफत हो

जो समझे जाते रखवाले थे

उन्हीं के सबसे बड़े निवाले थे

उन्होंने ही लिया था जिम्मा संवारने का

फिर से रिश्ते की मधुरता निखारने का

पर लालच सच में बहुत बुरी बला है

जिसको पकड़ ले उसका दुर्दिन नहीं टला है


एक दिन उन्होंने लिया सारा माल गटक

पुल मरम्मती का काम बीच में ही गया अटक

यह देखकर जब हम सब उसपर दौड़े थे

पाए खिसक गए और हम भहरा कर गिरे थे


ऐसा ही कुछ मोरबी के पुल हादसे में भी हुआ

ठेका पाने के लिए बड़े व्यापारी ने खेला जुआ

जिसे मिला था पुल मरम्मती का जिम्मा

वह निकला कितना बड़ा निकम्मा

न जाने कितने लोग मरे थे

जब वे कमज़ोर पुल से गिरे थे

उनके घर पसरा मातम

कैसा उसने ढाया सितम

डेढ़ सौ मौतें मुद्दा है एक बहस का

पर सवाल यहां सबसे बड़ा इंसान की हवस का


#morbi #मोरबी #हादसा #yqdidi

मणिपुर की स्त्रियां

नहीं बनी अब तक कोई ऐसी मशीन

जिसने मापी हो

मजदूर

हम मजदूर
कितने मजबूर
गांव से दूर
रहते नागपुर
कुछ कानपुर
या सहारनपुर
बनाते अट्टालिकाएं,
तंबू या बंबे में अपने बच्चे सुलाएं 
फुटपाथ या हो सड़क 
भले धूप हो कड़क
या पुल
घर दुआर भूल
नींव रखते हम
भूल कर गम
जोड़कर ईटें
कितना भी सर पीटें
मिलते कम पैसे
जैसे तैसे
ढोते बालू सीमेंट गिट्टी
गुम है सिट्टी पिट्टी 
सत्ता क्रूर
मद में चूर
सोचती नहीं 
हम हैं मजदूर
होते रोज़ सबेरे  
चौक पर जमा
इस उम्मीद में
कि दिन भर में 
लेंगे कुछ कमा 
भर सकेंगे बच्चों के पेट
नहीं तो रेलवे लाइन पर जायेंगे लेट
कट जायेंगे
और बेवकूफ मंदबुद्धि और न जाने क्या क्या कहलाएंगे
#मज़दूरहैंहम #मजदूर #yqdidi #yqhindi

Thursday, May 23, 2024

फरवरी का महीना

 दफ्न होता है एक शायर पंद्रह को 
सन अठारह सौ उनहत्तर में
जानते हैं लोग उसे ग़ालिब के नाम से 

पैदा होता है एक फ़नकार इनकी रूह लिए 
आठ फरवरी को सन उन्नीस सौ इकतालीस में
जी उठता है फिर से ग़ालिब 
अपनी गज़लें सुन इनकी आवाज़ में
नाम जिसका है जगजीत

एक दूसरा अजीम शायर 
सुपुर्दे ख़ाक होता है आठ को ही
दो हजार सोलह में
नाम था जिसका निदा फ़ाज़ली 

ग़ालिब, जगजीत और निदा फ़ाज़ली
दो शायरों के बीच एक फ़नकार
इनके फ़न के समंदर में जो डूबा सो लगे पार 
इनका रिश्ता कितना सुहाना है
ये फरवरी का महीना है


अभी थोड़ी जान बाक़ी थी...

 

हर बदन में होती हैं दो जानें
ज़िंदा रहने के लिए 
दोनों की सांसें चलना जरूरी है

एक से ज़िंदा रहता है बदन
दूसरे से समाज चलता है

एक की सांस रुकने पर  
मर जाता है इंसान
दूसरी की रुकने पर 
मर जाता है समाज

तब दफ्न कर देता है इंसान
अपने ही बदन में गहरे अंदर इसे
ढोता है अपना ही बदन
इस लाश को लिए हुए

गुजरे ज़माने में इस दूसरी जान 
को मरने नहीं देते थे लोग
कठिन तो होता था 
इसकी सांसें बचाए रखना
पर बचा ही लेते थे किसी तरह
झुकते नहीं थे
इसके मरने की सूरत में
मर जाते थे ख़ुद भी
कोई संशय नहीं होता था
रुक जाती थी सांसें स्वतः
पहली जान की भी 
पश्चाताप से

वक्त के साथ कीमत घट गई इसकी
समझौता कर लिया इसने परिस्थितियों के साथ 
अब मौक़ा देखकर चलती या रुकती है यह
कभी जीती तो कभी मरती है 
सुविधा के हिसाब से
इसे जिंदा रखना और मारना चलता रहता है 

इसके मरने से अब मातम नहीं मनाता इंसान
ख़ुद मर जाना तो दूर
इसे दफ़न करने पर 
बोझ भी नहीं महसूस करता है वह

दुर्लभ प्रजाति की श्रेणी में आ गया यह
"Endangered species" 
लुप्त हो सकता है यह कुछ दिनों में
इसके पहले कि भूल जाएं हम 
याद कर लें इसका नाम
ज़मीर या अंतरात्मा कहते हैं इसे

इसे मारा है मैने भी अक्सर
और जीया है शान से
अभी थोड़ी जान बाक़ी थी 
जो लिख सका बयान ये

#ज़मीर #अंतरात्मा #yqdidi #yqhindi

कुम्हार

 हे कुम्हार
गढ़ों आकार
करो साकार

तुम हो निर्विकार
पाकर तुम्हारा स्पर्श
होगा उत्कर्ष

भरोगे प्राण 
पहनाकर वस्त्र और आभूषण
करेगी रौद्र रूप धारण
होगा असुरों का संहार
और हमारे विकार

अभी हैं नग्न 
जैसे हम थे
माता के गर्भ में
और पैदा होते वक्त भी

पर जैसे हम हुए बड़े
हमारे पाप के भरे घड़े
अवगुण हुआ हावी
नरक बना भावी
आख़िर क्या हुआ
न जाने किसने छुआ 
किसका मिला अभिशाप
कोख में हम भी तो थे निष्पाप...!!

राजनीति, धर्म और मोहब्बत

ऐसा नहीं कि मैं राजनीति या धर्म पर 
कुछ कह नहीं सकता
पर धर्म के नाम पर राजनीति हो 
या धर्म में राजनीति समा जाए
यह मैं सह नहीं सकता

धर्म व्यक्तिगत आस्था का नाम है
राजनीति का इसमें क्या काम है
यह व्यक्ति को ऊंचा उठाता है
मानवता का पाठ पढ़ाता है
परहित के साथ स्वयं का भी करता उत्कर्ष है
विषाद को खत्म कर धर्म लाता हर्ष है

राजनीति का उद्देश्य भी जनता की भलाई है 
सत्ता के शीर्ष पर बैठ खाना नहीं मलाई है
मानव कल्याण ही राजनीति का गंतव्य है
इस मायने में राजनीति और धर्म का एक ही मंतव्य है
पर दोनों के अनुयायी भटक गए हैं
मूल सिद्धांतों को छोड़ स्वार्थ में अटक गए हैं
धर्म और राजनीति दोनों बन गए व्यापार हैं
सत्ता पाने के उपकरण और हथियार हैं

केवल राजनीति को देखें तो 
इसमें बड़े पंगे हैं
इस हम्माम में सभी नंगे हैं

राजनीति और धर्म की बातों से
अक्सर बढ़ जाता विवाद है
पर मोहब्बत की बातों से आप सहमत न भी हों 
तब भी नहीं प्रतिवाद है
राजनीति और धर्म के विवाद में होती बहुत तल्खी है
मोहब्बत की बातों से मगर मिलती बहुत खुशी है

इसलिए मैं राजनीति और धर्म पर कभी कुछ नहीं लिखता
कहने और लिखने के लिए मोहब्बत ही सबसे अच्छा विषय लगता

मोहब्बत की बात करो तो मन रहता है खिला खिला
हर परिस्थिति में ख़ुशी का रुकता नहीं है सिलसिला...!!

गौरैया

नन्ही गौरैया
खूबसूरत गौरैया
उसके छोटे छोटे बच्चे
लगते थे कितने अच्छे
उसका घर परिवार
सुबह से ही लाती खर पतवार
जमा करती रोशनदान में
या पंखे के ऊपर ढक्कन में
देखते देखते बना लेती आरामदायक घोंसला
सिखाती हमें जीवन जीने की कला
बच्चे पलते थे उसके उसमें
दाना लाती या कीट पतंग
रहती हमारे ही संग

अब घर हो गए तंग
हो गए रोशनदान बन्द
गायब हो गई गौरैया हमारे घरों से
उड़ गई अन्यत्र अपने नन्हें परों से
रहता हूं मैं खौफ़ज़दा
पाकर उसे गुमशुदा
अब घर हो गया सूना 
उसके बिना
कितना अच्छा लगता था 
संग जीना
चींची कर हमे जगाती थी
मेहनत का पाठ पढ़ाती थी
अब कहां मिलेगा वह साथ 
और जीवन का पाठ
हमारी ही कोई गलती रही होगी
रोक न पाए उनके लुप्त होने का सिलसिला
वरना यूं घर छोड़कर कोई जाता है भला

Tuesday, May 22, 2018

आशा और माँ का जन्मदिन 27.02.2018

आशा....
दो अक्षर का तुम्हारा नाम...
पूरी कायनात को बाँहों में भर लेने की
इच्छा-शक्ति समाहित है इस शब्द में
जिस स्नेह के धागे से तुमने मुझे जोड़ा है
उस रिश्ते को क्या नाम दूँ मैं
बहन, पुत्री, सखी या माँ...
इन शब्दों से परे
एक रुहानी और सात्विक रिश्ता भी होता है सृष्टि में
मैंने देखा नहीं है तुम्हें...ना ही कभी मिला हूँ
आज की डिजिटल दुनिया में
व्हाट्सएप पर जब भी तुम्हारी तस्वीर उभरी है
एक हँसता, खिलखिलाता, उम्मीदों से भरा अक्स ही
मेरी आँखों के सामने उभरा है
अब मैं जब अपनी दूसरी पारी
अच्छे से खेलने की तैयारी में कमर कस रहा हूँ
तो तुम्हारा यही चेहरा मेरे बुझे हौसलों में नई ताकत भर रहा है
आज तुम्हारे जन्मदिन पर मैं यही शुभकामना देता हूँ
कि भूले से भी शिकन ना आए चेहरे पर
खिलखिलाती रहो, मुस्कुराती रहो
गीत खुशियों के गाती रहो..
खुश होगी जानकर
आज जन्मदिन है मेरी माँ का भी....

Sunday, February 5, 2017

आशा और माँ का जन्मदिन और सौम्या का रिंग सेरेमनी 27.02.2017

आशा....
दो अक्षर का तुम्हारा नाम...
पूरी कायनात को बाँहों में भर लेने की
इच्छा-शक्ति समाहित है इस शब्द में
जिस स्नेह के धागे से तुमने मुझे जोड़ा है
उस रिश्ते को क्या नाम दूँ मैं
बहन, पुत्री, सखी या माँ...
इन शब्दों से परे
एक रुहानी और सात्विक रिश्ता भी होता है सृष्टि में
मैंने देखा नहीं है तुम्हें...ना ही कभी मिला हूँ
आज की डिजिटल दुनिया में
व्हाट्सएप पर जब भी तुम्हारी तस्वीर उभरी है
एक हँसता, खिलखिलाता, उम्मीदों से भरा अक्स ही
मेरी आँखों के सामने उभरा है
अब मैं जब अपनी दूसरी पारी
अच्छे से खेलने की तैयारी में कमर कस रहा हूँ
तो तुम्हारा यही चेहरा मेरे बुझे हौसलों में नई ताकत भर रहा है
आज तुम्हारे जन्मदिन पर मैं यही शुभकामना देता हूँ
कि भूले से भी शिकन ना आए चेहरे पर
खिलखिलाती रहो, मुस्कुराती रहो
गीत खुशियों के गाती रहो..
खुश होगी जानकर
आज जन्मदिन है मेरी माँ का भी....
और एक राज़ की बात कि
आज ही मेरी बिटिया ने अपने जीवन साथी की ऊंगलियों को थामा है
एक दूसरे को अंगूठी दे कर ...


Thursday, April 21, 2016

MAYA ANGELOU

I know why the caged bird sings, ah me,
When his wing is bruised and his bosom sore,
When he beats his bars and would be free;
It is not a carol of joy or glee,
But a prayer that he sends from his heart's deep core,
But a plea, that upward to Heaven he flings –
I know why the caged bird sings.


माया एंजलो ने जब लिखा “ I know why caged bird sings”  तो उन्होंने सोचा ना होगा कि उनकी अभिव्यक्ति दासता की जंजीर में जकड़े हजारों-लाखों व्यक्तियों को जीने की प्रेरणा देगी. दासता के कई रूप होते हैं. किसी अन्य देश की अधीनता, तो कहीं युद्ध की विभीषिका. कहीं रंग भेद, तो कहीं जातिभेद. सूक्ष्म रूप में मानसिक और दैहिक शोषण भी. दासता सिर्फ दिखाई देने वाली गुलामी नहीं है. माया ने इन सभी यंत्रणाओं को झेला है. भोगा है. यहाँ तक कि बलात्कार की भी शिकार हुईं. बलात्कार भी माँ के प्रेमी ने किया जिसकी बाद में माया के चाचा ने हत्या कर दी. इन सब वाक्या से उन्हें इतना सदमा लगा कि वे कुछ सालों के लिए बिल्कुल खामोश हो गईं. पारिवारिक टूटन, द्वितीय विश्व युद्ध, रंग भेद, कैबरे डांस में लोगों की गंदी निगाहें और ना जाने क्या-क्या? ओफ...माया ! काश तुम्हारे दर्द का दशांश भी हमने साझा किया होता. पर यदि ऐसा होता तो क्या हम झेल पाते...कविता लिख पाते, अपनी आत्मकथा लिखने का साहस जुटा पाते, दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बन पाते.  नहीं, हम तो पागल हो जाते, आत्म हत्या कर लेते. पर तुमने खामोशी में अपनी अंतरात्मा को जीवित रखा. बंद पिंजड़े में चहचहाते पंछी को देखा और कलम उठा ली. फिर जो लिखा तो आत्मवेदना अंत:प्रेरणा बन गई. जब वे कहती हैं “मैं उठती हूँ” तो एक अनजान प्रेरणा शक्ति हमें भी उठाती है. भय और आतंक की रातें पीछे छूट जाती हैं, पुरानी शर्मनाक और दर्दनाक बातें जिसकी जड़ें दर्द से सींची गई है, अतीत का हिस्सा बन जाती हैं. उस अतीत से ऊपर उठते ही एक उम्मीद सी जगती है. आत्मसम्मान पैदा होता है कि अब कोई टूटा हुआ देखना भी चाहे, जिसका सिर झुका हुआ हो, नजरें झुकी हों, कंधे नीचे गिरे हों और बेवजह आँखें डबडबाई हों तो अब यह सम्भव नहीं. क्योंकि अब मैंने हँसना सीख लिया है भले ही यह तुम्हें हेकड़ी लगती हो और तुम्हें चोट पहुँचाती हो. वाह...माया...वाह!! तुम्हें सलाम.

“काम करती स्त्री” कविता को भी मैं प्रेरणादायी कविता ही मानूँगा. एक स्त्री ना जाने कितना काम करती है, बिना किसी सहयोग के. अपना कहने के लिए उसके पास प्रकृति के सिवा कोई नहीं. पर प्रकृति के शीतल एवं स्नेहिल स्पर्श से वह बच्चों और बीमार की देखभाल से लेकर पूरे कुनबे को खाना खिलाने तक का काम कर लेती है. दरअसल अपना एकाकीपन वह प्रकृति से एकाकार हो कर दूर करती है.

“वे घर गए” कविता से एक अजब पीड़ा का बोध होता है. स्त्रियों के
शोषण की पीड़ा, उन्हें इस्तेमाल कर छोड़ देने की पीड़ा. यह पीड़ा दिल के गहरे तक टीस दे रही है.

आदरणीय श्री मणिमोहन जी का अनुवाद इतना प्रभावी है जैसे 
माया एंजलो ने खुद ही हिंदी में ये कविताएँ लिखी हों. अनुवाद कहीं नहीं प्रतीत होता. कविता की आत्मा के साथ उन्होंने पूर्णत: न्याय किया है. वैसे भी भावना समझ लेने पर भाषा की महत्ता गौण हो जाती है. उन्हें कोटिश: बधाई और विनम्र प्रणाम. 
शांडिल्य जी एवं सुश्री सुमन जी को इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.


Sunday, April 3, 2016

आसमान की चादर


सोचता हूँ,
बेख़बर नींद में

गर आसमान की चादर तन से हट जाए तो ...!!

Saturday, March 26, 2016

ख़्वाबों की दुनिया

चलो ख़्वाबों की दुनिया में चलें
आसमान की सैर करें
बादलों की ओट में लुका छिपी खेलें
किरणों के सिरे पकड़ रस्सी कूदें
बारिशों के छींटें मारें
बादलों ने जमा कर रखे हैं जो पानी
उसमें छपाक छपाक तैरें
धनक पर गीले कपड़े सुखाएँ   
रात होते ही आसमान की चादर ओढ़ 
सो जाएँ हम

ज़मीं पर
सबेरे से ही जद्दोज़हद के आलम में
बड़ी बेचैन कटती हैं रातें..!!


Friday, March 25, 2016

रिश्ता मेरा


रिश्ता मेरा नाज़ुक धागा
इन धागों में पड़ी हैं गाँठें
ये धागे अब टूटे सो तब टूटे

रिश्ता मेरा कच्ची टहनी
रख कर पाँव चढ़ूँ जो ऊपर  
ये टहनी अब टूटे सो तब टूटे 

रिश्ता मेरा छोटी नैया
यह नैया मँझधार में डोले
ये नैया अब डूबे सो तब डूबे  

रिश्ता मेरा नट की रस्सी
इस रस्सी पर खेल दिखाते
पाँव मेरे अब फिसले सो तब फिसले

रिश्ता मेरा चाकू की धार
चाकू से भी तेज़ जुबाँ है 
सर मेरा अब रेते सो तब रेते 

रिश्ता मेरा आश्विन की धूप
इस गर्मी में नहीं है पानी
चमड़ी मेरी अब सूखे सो तब सूखे

रिश्ता मेरा काग़ज़ का पुर्ज़ा  
इस पुर्ज़े पर प्यार की बातें 
बूँद पड़े अब घुले सो तब घुले 

रिश्ता मेरा आदमकद शीशा  
पत्थर बीच रखा यह शीशा  
यह शीशा अब चनके सो तब चनके

रिश्ता मेरा जैसे पिंजड़ा 
इस पिंजड़े में फड़फड़ पंछी
यह पंछी अब उड़े सो तब उड़े    

(होली/24.03.2016)

Monday, March 21, 2016

दिसम्बर का महीना


दिसम्बर के महीने में
बच्चों से बातें करने का एक विषय मिल जाता है
ठंढ बढ़ रही है
अपना ख़याल रखना
अलग अलग शहरों का तापमान हर रोज़ गिर रहा है
दिल्ली शीतलहर की चपेट में
लिहाफ में रहना  
वरना पिछले कुछ महीने तक
कैसे हो’,
क्या हाल है’,
खाना खाया 
कह कर
और अच्छा हूँ’,
काम कर रहा हूँ’,
भूख लगेगी तो खा ही लूँगा
सुन कर ही

फोन रखना पड़ता था...!! 

सूक्ति


कभी कभी जाने अनजाने हम ऐसा कुछ कह जाते हैं
दिल पर गहरा बोझ लिए फिर जीवन भर पछताते हैं

बत्तीस दाँतों के पहरे में भी जीभ फिसल ही जाती है 
धनुष से छूटे बाण कहाँ,  फिर वापस आ पाते हैं

कोई गलती एक बार हुई हो तो यह बात अलग है
ठोकर खा कर भी हम क्यूँ उस गलती को दोहराते हैं

हर ज़ख़्मों में सबसे गहरा ज़ख़्म है कड़वी बातों का
लाख लगाओ मरहम फिर भी दाग़ कहाँ धुल पाते हैं


बतरस


आओ बात छीलें
घनी आबादी के इस जनअरण्य में
पेड़ उगे हैं कई बातों के
आओ, किसी एक मसले का पेड़ चुन लें 
उसे उखाड़ें 
आरा मशीन पर चढ़ाएँ 
काटें,
फिर छीलें
छीलते जाएँ
थक जाएँ तो छोड़ दें
फिर चुन लें कोई नया पेड़ 
उस जंगल से
छाँटें,
उस पर रैंदा चलाएँ
छीलें,
लगे रहें हम इस रोज़गार में
अच्छा 'एंगेजमेंट' है यह 

बात कोई काठ नहीं
जो हो जाए चिकनी
आओ न..
कोई बात चुनें
छीलें...!!


(आजकल टी.वी. पर चल रहे निरर्थक मुद्दों जैसे देशभक्ति, भारत माता की जय बोलना इत्यादि पर आ रही निरंतर बहस से प्रभावित यह कविता)

Tuesday, March 8, 2016

नारी

1.
नारी तुम चेतना हो
करुणा हो, प्रेरणा हो
कल्पना हो, अल्पना हो
पूजा और अर्चना हो

वनिता हो, ममता हो,
त्याग की प्रतिमूर्ति हो
गहन सहनशीलता
यश और कीर्ति हो

जननी हो, पालक हो
सबकी संरक्षक हो,
रहस्यमयी माया हो
सौंदर्य की काया हो

घर और परिवार हो,
सुसंस्कृत समाज हो
सुंदर भविष्य और
प्रगतिशील आज हो  

ज्ञान की देवी हो,
सुख और समृद्धि हो
कुल की मर्यादा हो
सम्पदा की वृद्धि हो

जीवन-संजीवन हो,
हृदय का स्पंदन हो  
विजयी भाल पर चंदन
और अभिनंदन हो

शांति सौहार्द्र हो
उत्साह और उमंग हो
संग जो हो तुम्हारा,
जीवन सतरंग हो

रुप हो रंग हो और
गुणों की खान हो
सादगी जहाँ सुंदरता  
कवियों की बखान हो

स्वतंत्रता की परिभाषा
किंतु मर्यादा हो
सभ्यता का प्रतीक
और निडर निर्भीक हो

सौम्या हो स्नेहिल हो
प्रेम की धारा हो
स्पर्शमात्र से तुम्हारे
सुधा, जल खारा हो

गति हो प्रगति हो
रति और सुमति हो
तुमसे ही पूर्णता
और सदगति हो  

भाव हो नृत्य हो
गीत और संगीत हो
माधुर्य से ओत-प्रोत
जीवन का मीत हो

पुरुषों की साँस हो
जीने की आस हो
गृहस्थ आश्रम में ही 
योग और सन्यास हो

वंदना सम्वेदना
मान और सम्मान हो
आन हो बान हो
तुम ही तो प्राण हो


2.

(नारी का एक रूप यह  भी)
कितना उपवास रखती हो तुम
आज शनिवार है
सुंदर कांड का पाठ करोगी तुम
क्या कहा, मेरे लिए?
और वृहस्पतिवार को साईं बाबा का व्रत?
वो तो बेटे की सफलता के लिए
ठीक है, फिर रविवार को यज्ञ-हवन क्यों?
बेटी के लिए... एक पंडित ने कहा था
बहुत हो गया,
मंगल को हनुमान मंदिर जाना जरूरी है क्या ?
हाँ, निरोग काया रहे, शक्ति और भक्ति रहे इसलिए
तो बुध को गणपति क्यों
बुद्धि के लिए
फिर सोम को तो कुछ आराम करो,
शंकर को जल चढ़ाना क्यूँ
आप खुश रहें इसलिए
चलो, हटो..मैं तो खुश हूँ 
सबको उनके हाल पर छोड़ो 
अपने लिए भी कुछ जियो 

अपने लिए ही तो मैं जी रही हूँ
ये व्रत-उपवास कर रही हूँ
बच्चे और आप ही तो हैं
मेरे अपने
सिर्फ मेरे अपने..!!  



Sunday, February 14, 2016

हनुमनथप्पा की याद में

माँ यह कैसा शोर है
सोने नहीं देता मुझे चैन से
दफ़्न हो कर भी

सियाचीन में बर्फ़ में जब दबा हुआ था मैं
मुझे तेरी बहुत याद आई थी
याद आए थे मेरे कई साथी भी
जो मुझसे कुछ दूरी पर ही दबे पडे थे  
मुझे नहीं पता कि उनमें कितनों ने
दम तोडा था मुझसे पहले
ठंढ से काठ हो चुकी थी साँसे सबकी
पर फख़्र है हमें इस बात का
कि तेरी हिफाजत में कोई कसर नहीं छोडी थी हमने   

साँसे तो मेरी भी उखडने को बेताब थीं
पर तेरी हथेलियों की गर्माहट
अपने गालों पर महसूस कर
सुनता रहा था तेरे दिल की धडकन  
थाम रखा था तेरी आस और सबकी दुआओं ने
मुझे कई दिनों तक

बर्फ़ की चादर हटा निकल गई जब रूह मेरी  
क्यों नहीं मिल रही पनाह मुझे
कह दो इन सरफिरों से
इतना शोर न करें  
बोलने की आज़ादी के नाम पर 
कितना बोलते हैं सब 

माँ, तेरी हिफाज़त की चिंता अब
खाए जा रही है मुझे  
शोर ये थमे 
के नींद आए मुझे..!!