Friday, February 7, 2014

जुडवा भाई



इक ब्राह्मण ने कहा था कि चरखी है मेरे पाँव में
घूमता रह जाऊँगा जिन्दगी भर शहर और गाँव मैं

ना मिलेगा चैन और विश्राम घर की छाँव में
जो सुकून होता है हासिल हर किसी ठहराव में

उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम कुछ भी नहीं रहा बाक़ी
इस तरह ज़िन्दगी भर सिर्फ ख़ाक ही तो है फाँकी

पर देखा मेरी आँखों ने हर तरफ एक वाक़या
क्या अमीर  और क्या गरीब क्या शहर और गाँव क्या  

हर शहर मुझको लगे के जैसे जुडवा भाई हों    
हर चीज अपनी सी लगी जैसे नहीं पराई हो

हर गाँव में हर शख़्स का एक सा चेहरा मिला
'धनिया' मिली हर झोंपडी में और खेत में 'होरी' मिला

भूख की तडप वही तो जद्दोज़हद भी एक सी
आँखों में सपने एक से और मुस्कुराहटें एक सी  

ख़ुशबू हवा की एक सी और धूप-बदली एक सी  
और मिलती थी दरख़्तों की भी शक्लें एक सी

सबके चेहरे एक से और सबका किस्सा एक सा
इस तरह अजनबी कहीं भी कोई मुझको न मिला


 6.2.2014 

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