इक ब्राह्मण ने कहा था कि
चरखी है मेरे पाँव में
घूमता रह जाऊँगा जिन्दगी भर
शहर और गाँव मैं
ना मिलेगा चैन और विश्राम घर
की छाँव में
जो सुकून होता है हासिल हर
किसी ठहराव में
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम कुछ
भी नहीं रहा बाक़ी
इस तरह ज़िन्दगी भर सिर्फ
ख़ाक ही तो है फाँकी
पर देखा मेरी आँखों ने हर
तरफ एक वाक़या
क्या अमीर और क्या गरीब क्या शहर और गाँव क्या
हर शहर मुझको लगे के जैसे
जुडवा भाई हों
हर चीज अपनी सी लगी जैसे
नहीं पराई हो
हर गाँव में हर शख़्स का एक
सा चेहरा मिला
भूख की तडप वही तो जद्दोज़हद भी
एक सी
आँखों में सपने एक से और
मुस्कुराहटें एक सी
ख़ुशबू हवा की एक सी और
धूप-बदली एक सी
और मिलती थी दरख़्तों की भी शक्लें
एक सी
सबके चेहरे एक से और सबका
किस्सा एक सा
इस तरह अजनबी कहीं भी कोई
मुझको न मिला
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