Friday, July 6, 2012

याद है तुम्हें


याद है तुम्हें ?
पिछले जाडे के मौसम में
कैसा कहर बरपा था
खत्म हो गई थी
रज़ाई, कम्बल और गर्म कपडों
की तासीर..
अलाव तापते कटते थे दिन
और आहें भरते रातें
कोहरे को चीर कर जब
महीनों बाद सूरज देवता ने दर्शन दिए थे
तब जाकर खिले थे सबके चेहरे
याद है न तुम्हें ?

फिर गर्मी का मौसम आया था..
ऐसा लगा था जैसे उसने
जाडे के मौसम से होड ले ली हो
हम क्यों कम रहें?
चिलचिलाती धूप और तपिश ने
जीना मुहाल कर दिया
शोले बरसते थे आसमान से
और आग बरसती थी पंखों से
पसीने में नहाए हम
बरसात में नहाना चाहते थे
आषाढ बीत गया
किसानों की आँखें बादल
तकते-तकते धुँधिया गईं
पर मानसून चकमा देकर चलता बना
करीब दो महीने झुलसाने के बाद
कल सावन की पहली फुहारों ने
तपिश पर मरहम लगाया
याद है न तुम्हें गर्मी का कहर?

पर अब बरसात की बारी है
मुझे पक्का यकीं है कि
अबकी बारिश भी हमें रुलाएगी
कहीं गाँव दहेंगे
कहीं खेत बहेंगे
शहरों में नाव चलेगी
सडकों पर घुटनों भर पानी होगा
फिर पानी सर के ऊपर होगा
ज़िल्लत की ज़िन्दगी होगी
फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा
जैसे कुछ हुआ ही न हो
फिर तुम्हें कुछ भी याद न आएगा
और याद करोगे भी तो
विजयी भाव से यही कहोगे कि
मौसम के इन थपेडों को
हमने बिना शिकायत झेल लिया

जैसे तुम जाडे की ठिठुरन भूल जाते हो
जैसे तुम गर्मी की जलन भूल जाते हो
और जैसे तुम बरसात की फिसलन भूल जाते हो
वैसे ही तुम पिछली कडवी बातें और
ज़िल्लत के दिन
क्यों नहीं भूल पाते?

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