Wednesday, November 30, 2011

गौरैया


रोज सबेरे देखता हूँ मैं
आती
एक
गौरैया मेरे घर के उस कमरे में
जहाँ खिडकी के पास ही
है एक बेसिन
और बेसिन के ऊपर लगा
एक आइना
देर तक उडती फिरती है
आइने के सामने
देखती है अपना ही चेहरा
हैरत करती
चोंच मारती
ठक-ठक की आवाज
से ही हमारी नींद खुलती
हम झटपट उठते
यह दृश्य देखते
वह गौरैया
शीशे पर करती लगातार चोटें
पर उसे कुछ न हासिल होता
फिर वह मायूस हो लौट जाती

हम सोचते,
वह क्या सोचती होगी
मैं कहता,
वह उसे अपना प्रतिद्वन्द्वी समझकर
चोंच मारती होगी
पत्नी कहती,
नहीं,
उसे लगता
है कोई उसका बिछडा साथी
जिससे मिलने को है वह आतुर
भाई कहता,
शायद अपने प्रतिबिम्ब की
हरकतों का लेती हो वह बदला
ताउ कहते,
कहीं ऐसा तो नहीं कि
वह हो आइने से ही खफा
ताई कहती,
जरूर वह जलती होगी
अपने से सुन्दर शीशे में
दूसरी गौरैया देखकर..
एक दिन हो गई यह चर्चा खत्म
जब मेरी नन्ही बिटिया ने कहा,
यह गौरैया खेल रही
एक नया खेल
शीशे के अन्दर के
अपने एक नए साथी के साथ
वैसा खेल जो वह अपने दोस्तों के साथ
नहीं खेल पाती
और फिर मेरे सात साल के बेटे ने कहा,
इस गौरैया को
होती है छटपटाहट
अपने बच्चे को खिला न पाने की
उसका बच्चा
कैद है जो शीशे के अन्दर
फोड देना चाहती है वह
शीशे को
अपनी चोंच के निरंतर प्रहार से
डालना चाहती है उसके मुँह में
निर्द्वन्द्व...
अपनी चोंच में लाया हुआ
बहुत दूर से
अनाज का एक दाना
या कोई कीट-पतंग..
यह गौरैया
एक माँ है...




2 comments:

Shashi Bala said...

गौरैया याद आ गई ।वह नही सी चिडिया कहां खो गई पता नहीं।बहुत सुन्दर रचना है।

Sudhanshu said...

बहुत बहुत आभार