दादाजी की हवेली
जिसमें थे भंडारघर, कुलदेवता का घर और
बारह कमरे
रहती जिसमें चाची,फुआ,दादी
छोटका बाबा, फूफा, बाबूजी-माँ
और भाई चचेरे
रेडियो वाला कमरा दादाजी का
और एक कोने में चौका
दूसरे कोने में सीढीघर
सीढीघर से सटे शौचालय और
उससे सटे स्नान-घर
बारी-बारी जाते सब
जिसको मिलता जैसा मौका
बीच में आँगन
और आँगन में था एक तुलसी चौरा
दादी अक्सर वहीं जमाए
रहती अपना डेरा
एक कोने में चापाकल
जहाँ होता कोलाहल
पर जीवन बदरंग नहीं था
हर्ष, उल्लास और उमंग था
बाहर के बरामदे में
एक बडी सी आरामकुर्सी
जिसपर पसरते दादाजी
देखते आते-जाते लोगों को
उनके अभिवादन का जवाब देते
कुशलक्षेम पूछते
अखबार पढते
बच्चों के साथ लूडो या कैरम भी खेलते
दिन भर लोगों का जमावडा होता,
सब पूछते उनकी राय
बीच-बीच में घर की बहुएँ भेजती रहतीं चाय
सबेरे दादी के चापाकल चलाने की आवाज से
धीरे-धीरे हर कमरे के खुलते दरवाजे
अलसाती,जम्हाई लेती निकलती
चाचियाँ, फूफियाँ पाँच बजे
देर से निकलते चाचा और फूफा
झेंप मिटाते, कहते
”मैं
तो तडके ही जग गया था’
फिर अपने-अपने कमरे के सामने
ड्योढी में बैठ
मोटे पीतल के गिलास में
चाय सुडकते
मसखरी करते
बतकही करते
खाने का मेनु तय करते
बाहर बैठे दादाजी को प्रणाम करते
और अपने-अपने काम पर चले जाते
शाम को आने पर फिर सब इकट्ठे होते
चाय पीते,
फिर रात घिर आती
यह जानते हुए भी कि
बिजली नहीं आने वाली,
बिजली की प्रतीक्षा करते
आँगन में जमा होते
दरियाँ बिछतीं
लालटेन की मद्धिम रोशनी में
फूफा गाना गाते
फिर वे बडकी चाची से गाने की जिद करते
दादाजी भी मानते
वह बहुत सुरीली है
खूब मीठा गाती
मैं माँ की गोद में लेटा-लेटा
आकाश में छिटके तारे देखता और
बडकी चाची का गाना सुनते-सुनते सो जाता
उस रात मेरे सपने में
कोई परी आती
जिसकी शक्ल मेरी चाची से मिलती
आँगन के बीचो-बीच एक नीम का पेड उग आया था
मैं अक्सर सोचा करता
एक दिन यह पेड बहुत बडा हो जाएगा
फिर मैं उसकी फुनगियों को
नहीं छू पाउँगा
मेरी दादी उसकी जडों में रोज पानी देती
एक दिन घनघोर विलाप हुआ
दादाजी को आँगन में लिटाया गया था
सफेद चादर में
हर कमरे से निकली चाचियों, फूफियों के करुण-क्रन्दन से
थर्रा गई थीं हवेली की दीवारें भी
मुझे सिर्फ इतना याद है कि
दादाजी का मुँह खुला हुआ था
जैसे वे अवाक हों कह रहे हों, ‘यह क्या हो गया?’
सिर्फ तीन महीने बाद ही
छोटका बाबा ने माँग की थी..
उनका कुनबा बडा हो गया है
उन्हें कुछ और कमरे चाहिए
उस दिन बडकी चाची ने खाना नहीं खाया
दादाजी का रेडियो-घर उनका हुआ
उस दिन के बाद उस कमरे से रोज हमें
नए समाचार सुनने को मिलने लगे
और एक दिन आँगन में इक दीवार उठी
कमरे के साथ कई चीजें बँटी
तुलसी का चौरा और चापाकल उनकी तरफ
और कुलदेवता का कमरा दूसरी तरफ
आठ कमरे उनकी तरफ और चार दूसरी तरफ
धूप और छाँव बँटे
चाँद और सितारे भी बँटे
हमारे कई सपने घटे
दादाजी की कुर्सी, छडी, और न जाने कितनी चीजें उस तरफ
उनके होने का अहसास इस तरफ
नीम का पेड उस तरफ
डालियाँ इस तरफ
चाची उस तरफ
कानों में उनकी सुरीली तान की गूँज इस तरफ
बरस बीते
उन आठ कमरों का हिसाब तो मुझे नहीं मालूम
पर इस तरफ के चार कमरे भी घट कर एक हो गए
फिर आंगन में दीवार उठी थी..
फिर चाँद-सितारों का बटवारा हुआ था
उन्हीं कमरों की तलाश में मैं
अपने बेटे के साथ उस ड्योढी पर हूँ खडा
जहाँ कभी लोगों का होता था जमावडा
दालान का पता नहीं
हवेली कब की मिट चुकी
घर कमरों में तब्दील मिली
छोटका बाबा, दोनों दादियाँ और पिता जी
तो मेरे होशो-हवास में गुजरे
पर चाचा और फूफा की तस्वीर भी टंगी मिलीं
किसी कमरे से खाँसती हुई निकली बडकी चाची
मुझे देखते ही बोलीं, ‘बउआ जी’
उस रात बँटे हुए आँगन के एक छोटे से हिस्से में
तारों भरे आकाश के नीचे
भरभराई आवाज में चाची ने एक गीत सुनाया
मेरे मुन्ने को सुलाने के लिए
और देखते देखते वह सो गया
लौटने पर उसने अपनी तोतली आवाज में
कहा,
रात उसके सपने में एक परी आई थी..
जिसकी शक्ल बिल्कुल मेरी चाची जैसी थी...
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