मोरबी में हुए पुल हादसे से जोड़ती हुई एक कविता
एक पुल बनाया था पिताजी ने
दो कुलों को जोड़ा था
त्याग के पाए थे
ममता के साए थे
मज़बूत और भरोसेमंद
एक दूसरे के लिए फ़िक्रमंद
विश्वास के लगे थे सरिए
मिलने जुलने के थे ज़रिए
और थे सद्भाव के गारे
सह लेते थे दूरदराज़ के रिश्ते हमारे
जब हट गया उनका सर से साया
पुल पहली बार थरथराया
आने जाने से होने लगा कम्पन
मिलने जुलने पर भी नहीं खिलता मन
रिक्त हो गया मन का एक कोना
अपने हिस्से रह गया बस रोना
हिले थे पुल के पाए
कौन किसका हिस्सा खाए
किसी ने नहीं सोचा इस पुल की मरम्मत हो
जो आगे आये उनमें कोई शराफत हो
जो समझे जाते रखवाले थे
उन्हीं के सबसे बड़े निवाले थे
उन्होंने ही लिया था जिम्मा संवारने का
फिर से रिश्ते की मधुरता निखारने का
पर लालच सच में बहुत बुरी बला है
जिसको पकड़ ले उसका दुर्दिन नहीं टला है
एक दिन उन्होंने लिया सारा माल गटक
पुल मरम्मती का काम बीच में ही गया अटक
यह देखकर जब हम सब उसपर दौड़े थे
पाए खिसक गए और हम भहरा कर गिरे थे
ऐसा ही कुछ मोरबी के पुल हादसे में भी हुआ
ठेका पाने के लिए बड़े व्यापारी ने खेला जुआ
जिसे मिला था पुल मरम्मती का जिम्मा
वह निकला कितना बड़ा निकम्मा
न जाने कितने लोग मरे थे
जब वे कमज़ोर पुल से गिरे थे
उनके घर पसरा मातम
कैसा उसने ढाया सितम
डेढ़ सौ मौतें मुद्दा है एक बहस का
पर सवाल यहां सबसे बड़ा इंसान की हवस का
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