Friday, March 13, 2015

तुम्हारी नज़्म


गुनगुना के मस्ती में जब भी छेडी है तुमने कोई नज़्म  
एक ही साथ दो-दो नज़्में सुनाई दी है मुझे
एक तुम्हारी आवाज़
जैसे किसी खामोश वादी में दूर
कोई पेडों की छाँव में बैठा छेड रहा हो बाँसुरी की तान 

और दूसरी उन नज़्मों में पिरोए हुए लफ्ज़ों के मायने  
जो पुरवाई हवा के ठंढे झोंके से लगे हैं मुझे
किसी झुलसती गर्मी में

मेरा वक्त यह तय करने में ही निकल जाता है
किसे सुनूँ
आवाज़ या नज़्म
किसे अच्छा कहूँ
नज़्म या आवाज़
दरअसल दोनों एक से लगे हैं मुझे
तुम्हारी आवाज़ की ही तरह कितना सुकूँ देता है
तुम्हारी नज़्मों के मायने भी...!!
   



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