Wednesday, July 30, 2014

रात का मंजर





उम्र हो चली है
अब अक्सर बीच रात बेवजह ही खुल जाती है नींद मेरी

छत पर निकल आता हूँ
यूँ ही कुछ देर चाँदनी रात में टहलने लगता हूँ
पूरा मोहल्ला गहरी नींद में खर्राटे लिए मिलता है
मद्धम रोशनी झाँकती मिलती है घरों के जंगलों से
सडकों पर सरियों के लम्बे-लम्बे निशान मिलते हैं उन रोशनियों में 
चाँदनी झाँकती है लोगों के घरों में रोशनदानों से

सामने वाले घर से चीखने चिल्लाने की आवाजें आती हैं अक्सर
उम्र हो चली है,
दिखाई नहीं देता
शायद मिश्रा के घर से

ऐसे ही देर से आता है मिश्रा
न जाने कितने पिछले हिसाब हैं
जो देर रात ही ‘सेटल’ करते हैं मियाँ-बीवी  
गली के कुत्ते भी चौंक उठते हैं उनकी आवाज से
अचानक ही आपस में भिड जाते हैं
देर तक गुर्राते रहते हैं एक दूसरे पर
फिर एक सन्नाटा सा पसर जाता है

सबेरे मिलेगा मिश्रा दूध की बूथ पर
अपनी सूजी आँखें लिए हुए
और एक फीकी मुस्कान के साथ...!!
         

No comments: