Saturday, July 26, 2014

धरती



तुम्हारा सीना कई बार छलनी हुआ है
जब बाँटा है तुम्हें कई हिस्सों में
तुम्हारी ही संतानों ने

सरहद खींचे, मेड बनाए
आँगन में दीवार उठाए
मिट्टी कोडे, मलबे फेंके
तुमने कितने मंजर देखे

फिर भी देती ही रही सबको
ममता की गठरी से अपने  
कुछ न कुछ जो आँचल में छुपाए

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