अब परिन्दों के भी पर निकल आए हैं
लग गई है उन्हें भी नए ज़माने की हवा
अब वे अपने घोंसलों की ओर रुख़ नहीं
करते....
पेडों की शाखों पर घोंसले बनाने में
जोडना पडता है जो तिनका-तिनका
बदल डाले हैं उन्होंने अपने घर-बार भी
अब रातें वे कहीं भी काट लेते हैं
रोज़गार की खोज में भटकते हुए मुसाफिर की
तरह
कभी बिजली के तार पर खुले आकाश में
यूँ ही बैठे रहते हैं तनहा सारी रात
तो कभी रेलवे प्लैटफॉर्म की शेड पर
अपनी जगह बनाने के लिए
फुटपाथ पर सोनेवाले भिखमंगों की तरह
लडते-झगडते रहते हैं देर रात तलक...
कोयल की कूक भी सुनाई दे जाती है अक्सर
रातों में अब तो
मानो इस चिल्ल-पो से आज़िज़ आ कर
चीख उठी हो वह मध्य रात्रि में...!!
गर शाम ढले अपने घोंसलों में आते भी हैं
वे
तो देर रात तक सोते नहीं हैं
आवाज़ें आती हैं उनके घोंसलों से
जैसे हो रही हो तकरार मियां-बीवी में
कुम्हलाए हुए उनके बच्चे
फिर देर से उठते हैं सबेरे
और बादलों में ऊँची उडान भरने के बदले
अलसाए से बैठे रहते हैं मुडेर पर
उदास...
गुमसुम...!!
16.07.2014
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