Saturday, July 26, 2014

सूरज का ख़त अपनी बीवी को




संजना...
अक्सर देखा है मिलते ही
तुम्हारे चेहरे का रंग पड जाता है स्याह
झुलस जाती होगी शायद मेरे ताप से
या कोई जलन है तुम्हारे दिल में

क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती
चल दी मायके बिन बताए चुपचाप
तुम्हारे पीछे आई छाया मेरी ज़िन्दगी में
फिर सन्ध्या भी
सच मानो, तुम्हारा ही रूप जान
प्यार किया उनसे
बिल्कुल हमशक्ल जो थी तुम्हारी   

विवश हूँ मैं अपनी आग से
बादल बनाए तो हैं शीतलता के लिए
हवा से चिरौरी कर बिठाया उसे आसमान पर
पर कमबख़्त बरस जाता है नीचे ही
छोड कर मुझे जलता हुआ
बुझ न जाऊँ कहीं
धरती खींच लेती है उसे

काश कभी समझ पाओ
मेरे बदन की ज्वाला का राज
बस यही सच है
मैंने प्यार किया तुमसे... सिर्फ तुमसे
तुम्हारा ही
सूरज..!!

लिखते लिखते टपक पडे आँसू उसकी आँखों से
भेज सका न वह ख़त अपनी प्रियतमा को
जल गया ख़त आँसू के गिरते ही
सूरज के आँसू भी आग के शोले थे