Wednesday, July 30, 2014

रात का मंजर





उम्र हो चली है
अब अक्सर बीच रात बेवजह ही खुल जाती है नींद मेरी

छत पर निकल आता हूँ
यूँ ही कुछ देर चाँदनी रात में टहलने लगता हूँ
पूरा मोहल्ला गहरी नींद में खर्राटे लिए मिलता है
मद्धम रोशनी झाँकती मिलती है घरों के जंगलों से
सडकों पर सरियों के लम्बे-लम्बे निशान मिलते हैं उन रोशनियों में 
चाँदनी झाँकती है लोगों के घरों में रोशनदानों से

सामने वाले घर से चीखने चिल्लाने की आवाजें आती हैं अक्सर
उम्र हो चली है,
दिखाई नहीं देता
शायद मिश्रा के घर से

ऐसे ही देर से आता है मिश्रा
न जाने कितने पिछले हिसाब हैं
जो देर रात ही ‘सेटल’ करते हैं मियाँ-बीवी  
गली के कुत्ते भी चौंक उठते हैं उनकी आवाज से
अचानक ही आपस में भिड जाते हैं
देर तक गुर्राते रहते हैं एक दूसरे पर
फिर एक सन्नाटा सा पसर जाता है

सबेरे मिलेगा मिश्रा दूध की बूथ पर
अपनी सूजी आँखें लिए हुए
और एक फीकी मुस्कान के साथ...!!
         

Monday, July 28, 2014

झुलसा हुआ सूरज


धूप से झुलसा हुआ सूरज
उतर आया था झील में

सोचा ज़रा नहा लें


पर उबल रहा था झील का पानी भी
मुँह बना कर लौट गया आसमान में

अब शाम को एक ही बार
डुबकी मारेगा समन्दर में  
आग बुझाने
अपने दहकते बदन की... 



यह बूढा आसमान


रात भर जागता है यह बूढा आसमान
रोशनी आती है उसके कमरे से तारों की  

सबेरे सबेरे जगा देता है हमें
छींटे जब देता है मुँह पर ओस के  
फिर खडे हो जाते हैं सब बूढे बाबा को घेर
निकालता है यह अपनी झोली से कुछ न कुछ
बाँटता है फिर बराबर बराबर सभी में
धूप, हवा, पानी
चाँद और चाँदनी
बादल, बिजली, धनक
और फूलों की महक

इस बूढे आसमान ने वसीयत कर रखी है
के मिले सभी को उसके हिस्से का 
अपना अपना आसमान...!!



Saturday, July 26, 2014

घर का मुखिया


बहुत सबेरे जग जाता है यह घर का मुखिया
फिर हमें जगाता है खिडकी से रोशनी भेज कर

बेचैनी पैदा कर देता है हमें काम पर जाने के लिए
निठल्ला बैठने नहीं देता
धूप में तपाता है
कभी चाँदनी की बारिश में नहलाता है
तो सुलाता है कभी ठण्ढी बयार के झोंके में
बादलों की रजाई ओढाता है
कभी सपने दिखाता है
जब तारों के जुगनू टिमटिमाते हैं उसकी आँखों में

हमें किस बात की चिंता है
सर पर जो इसका साया है
किसकी मजाल जो दिखाए आँखें
अभी ज़िन्दा है घर का यह मुखिया

!

सूरज का ख़त अपनी बीवी को




संजना...
अक्सर देखा है मिलते ही
तुम्हारे चेहरे का रंग पड जाता है स्याह
झुलस जाती होगी शायद मेरे ताप से
या कोई जलन है तुम्हारे दिल में

क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती
चल दी मायके बिन बताए चुपचाप
तुम्हारे पीछे आई छाया मेरी ज़िन्दगी में
फिर सन्ध्या भी
सच मानो, तुम्हारा ही रूप जान
प्यार किया उनसे
बिल्कुल हमशक्ल जो थी तुम्हारी   

विवश हूँ मैं अपनी आग से
बादल बनाए तो हैं शीतलता के लिए
हवा से चिरौरी कर बिठाया उसे आसमान पर
पर कमबख़्त बरस जाता है नीचे ही
छोड कर मुझे जलता हुआ
बुझ न जाऊँ कहीं
धरती खींच लेती है उसे

काश कभी समझ पाओ
मेरे बदन की ज्वाला का राज
बस यही सच है
मैंने प्यार किया तुमसे... सिर्फ तुमसे
तुम्हारा ही
सूरज..!!

लिखते लिखते टपक पडे आँसू उसकी आँखों से
भेज सका न वह ख़त अपनी प्रियतमा को
जल गया ख़त आँसू के गिरते ही
सूरज के आँसू भी आग के शोले थे




धरती



तुम्हारा सीना कई बार छलनी हुआ है
जब बाँटा है तुम्हें कई हिस्सों में
तुम्हारी ही संतानों ने

सरहद खींचे, मेड बनाए
आँगन में दीवार उठाए
मिट्टी कोडे, मलबे फेंके
तुमने कितने मंजर देखे

फिर भी देती ही रही सबको
ममता की गठरी से अपने  
कुछ न कुछ जो आँचल में छुपाए