Sunday, December 6, 2015

क्षमा

कभी कभी मैं सोचता हूँ
गर क्षमा नहीं होती
तो क्या होता

कितना बोझ होता सीने पर
गाँठें नहीं खुली होतीं
ज़ेहन से टीस उठती बारहा
और दिल भरा भरा होता

ज़ुबां में रस नहीं होता
नाउम्मीदी घिरी होती
घृणा के बोझ से दबा होता
और मन घुटा घुटा रहता

धुआँ उठता हमेशा यादों का
चिनगारी दबी होती
इक ज़रा हवा पाकर
हर घर जला हुआ होता

सुख-चैन, अमन नहीं होता
उन्मुक्त कहाँ गगन होता
उजड़ा हुआ चमन होता 
बेरुख़ी का चलन होता 

पाँव में बँधा वज़न होता
दुखों से मैं घिरा होता 
औरों की क्या कहूँ ख़ुद की
नज़र से मैं गिरा होता



Sunday, November 22, 2015

गंगासेतु पर ट्राफिक जाम


सरकती मिलेंगी कारें, यह सोचा नहीं था
भयंकर मिलेगा जाम, यह सोचा नहीं था

बडी उम्मीद से निकला था जल्दी घर पहुँचने को
सुबह से हो जाएगी रात, यह सोचा नहीं था

सडक पर भागते फिरते लोगों के किस्से पुराने हैं
यहाँ ठहरी मिलेगी ज़िंदगी, यह सोचा नहीं था

घंटों के सफर के बाद जब हम बीच तक पहुँचे
हुआ उस पार फिर से दूर, यह सोचा नहीं था

उबासी ले ले के जब थक गया मेरा चेहरा
बुझेगी आखिरी किरण उम्मीद की, यह सोचा नहीं था

बचा आधा भी होगा कभी पूरा, जब सोच में आया
दिखेगी उस पार की बस्ती, यह सोचा नहीं था

हमारी दिनभर की जद्दोज़हद से बेखबर हो कर
मकाँ के सब मकीम सोए मिलेंगे, यह सोचा नहीं था

आधी रात को जब मैं थका हारा जो घर पहुँचा
माँ के हाथ का खाना मिलेगा, यह सोचा नहीं था

Sunday, November 8, 2015

आख़िरी रात



आज की रात आख़िरी है मधुबनी में मेरी यह रात
फिर होगी वह रातों को छत पर टहलने की बात

वो चाँद का छत की रेलिंग पकड कर बारहा टँगना
कभी टंकी के पीछे औंधे मुँह फिसल कर गिरा पाना
उतर आना मेरे कमरे में रोशनदान से अक्सर
टाइल्स की फर्श पर बैठ टकटकी बाँध कर तकना
वो हमसफर बन ट्रेन के फिर साथ ही चलना
मेरे सुख-दुख का साथी बन हमेशा राजदां रहना

सबेरे  ट्रेन की आवाज़ सुन कर मेरा जगना
इक ख़याल कि कोई आएगा दिल में कहीं बसना
दरवाज़े पर हर आहट से फिर चौंक कर उठना
मायूस हो जाना, चाँद की राह फिर तकना

कितना तन्हा गुज़रेगी कल से उस घर के छत की रात
बहुत रोएगा मेरे बग़ैर वो मधुबनी का चाँद ...!! 


Friday, October 30, 2015

ट्रेन में रात का सफर


ट्रेन चलती रही सारी रात
तुम बहुत याद आए सारी रात

धड-धड धडड घूमते रहे पहिए
दिल धडकता रहा सारी रात

खिडकी वाली बर्थ पर सामने
बतियाते रहे दो जवाँ सारी रात

सुन लेता जो उनकी बातें कभी
मैं लजाता रहा सारी रात

करवटें मैं बदलता रहा  
नींद आई नहीं सारी रात

ट्रेन में नींद आती कहाँ
बत्ती आँखों पर जली सारी रात

ले ना जाए कोई जूते कहीं 
कनखियाता रहा सारी रात

कल से होगी फिर वही ज़िंदगी
सोचते कट गई सारी रात

ज़िंदगी का ये सफर है अजब
मैं न सोया कभी सारी रात  


30.10.2015




Sunday, October 25, 2015

सनराइज : अज़ीम खाँ की कब्रगाह से


एक शख़्स का नाम लिखा है
पत्थर की स्लैब पर
कोई अज़ीम खान थे
जिनकी कब्रगाह है ऊपर पहाडियों पर
जहाँ से उगते सूरज देखने कभी-कभार आते हैं लोग

पीछे ही खडा है आठ सौ साल पुराना कुतुबमीनार
जिसके सैंडस्टोन के पत्थर दिख रहे हैं और भी सुनहले
सबेरे की रोशनी में

पूरी दिल्ली अलसाई हुए नज़र आ रही है
धीरे-धीरे आँखें मलते जाग रही हैं महरौली की सडकें

जिस जगह पर अभी खडा हूँ मैं
सामने ही सोए पडे हैं कब्र में अज़ीम खान
बगल में ही दूसरी कब्र में लेटी हैं शायद उनकी माशूका
पर उनका नाम कहीं नहीं लिखा

उनकी कब्रों के ऊपर के स्लैब गायब हो चुके हैं
ये पत्थर अपनी हिफाजत नहीं कर पाए
अज़ीम खाँ के नाम की तरह
पुरातत्व वालों को भी कोई विशेष जानकारी नहीं
सिवाय इसके कि इतिहास के गर्त में दबी
उनकी कब्र चार सौ पचास साल पुरानी है

मैं बादलों की ओट से झाँकते
करोडों साल पुराने सूरज को देखता हूँ
तवारीख़ के पन्नों में क़ैद
हज़ारों शख़्सियतों के नामों और उनके कारनामों का गवाह यह सूरज
चमक रहा है सृष्टि के आरम्भ से और
चमकता रहेगा
मेरे गुमनाम हो जाने के बाद भी...!! 

Wednesday, September 9, 2015

वर्तमान की खोज





मैं वर्तमान में जीना चाहता हूँ
प्रतिक्षण बीतते लमहों
के बीच

इस वर्तमान को ढूँढा है मैंने कई जगहों पर
बहती नदी में
पर हर प्रवाह बीतती दिखी है मुझे
मैं दो प्रवाहों के बीच उसे पकड़ना चाहता हूँ

चढ़ते सूरज में
पर चढ़ते सूरज के साथ मिली है बढ़ती गर्मी मुझे
मैं प्रतिक्षण बढ़ते तापों के बीच ठहरना चाहता हूँ

बादलों में
पर बदलता मिला है रंग बादलों का प्रतिपल
मैं बदलते रंगों के बीच का रंग छूना चाहता हूँ

झरनों के गिरते पानी में
पर शोर मचाते बहते पानी में कोलाहल मिला है मुझे
मैं गिरते पानी की खामोशी महसूस करना चाहता हूँ

हवाओं में, फूलों की खुशबू में
पर हवाओं की अलग-अलग गंध मिली है मुझे
मैं हवाओं में खुशबूओं के घुलने का पल देखना चाहता हूँ

लेखों में, शब्दों और हर्फों में भी ढूँढा है उसे
पर पल शब्द के दोनों अक्षरों के बीच एक लम्बी दूरी मिली मुझे
इस दूरी को मैं पाटना चाहता हूँ

अक्षरों के बीच की दूरी का अहसास डाल देता है मुझे
भूत और भविष्य की उलझन में
पल के के आने के बाद जुड़ना का
बना देना को बीता हुआ और को आने वाला
भूत, भविष्यत
मैं इन दो अक्षरों के बीच की जगह में जीना चाहता हूँ

मैंने पल की तरह तुम में भी ढूँढा है उसे
पर तुम का तू बीता हुआ मिला मुझे
मैं तुम और मैं के बीच में साँस लेना चाहता हूँ
जहाँ ना तुम तुम रहो
ना मैं मैं

मुझे वर्तमान का पता दे दो
कि जी सकूँ उसके साथ
मुक्त
नि:शब्द
निर्द्वंद्व...!!


दिनचर्या




रोज सबेरे एक दीया सा जलता है   
रौशन होती हैं आँखें मेरी
लौ धीरे-धीरे होती जाती है तेज
जैसे-जैसे सूरज चढता  है   

इक हौसला निखरता है 
उस लौ की आँच में
और तन तपता है

शाम ढलते ही
पडने लगती है लौ मद्धम मद्धम
बुझ जाता है दिल का चराग
रात होते ही

अँधेरे तन्हा कमरे में
फिर समेटता रहता हूँ 
उन बुझे हौसलों की राख
और सहेजता हूँ उस राख में दबी
कोई छोटी सी चिनगारी
के जल उठे फिर से दीया
अगली सुबह .!!

02.09.2015

मेरे कुछ दोस्त..



मेरे कुछ दोस्त ऐसे भी हैं जो
फोन इसलिए नहीं उठाते
कहीं मैं कोई काम न बोल दूँ
यह जानते हुए भी कि
मैंने आज तक काम के लिए
कभी भी अपना मुँह नहीं खोला

दरअसल मेरी दोस्ती
मुँह नहीं खोलने के कारण ही टिकी है
जबकि हम दोनों एक ही स्कूल में
एक ही शिक्षक से पढे हैं
फ्रेंड इन नीड इज फ्रेंड इंडीड 

मैं गर मुँह खोल भी दूँ
और कोई काम बोल भी दूँ
तो उनके लिए यह
खेल है बस ऊँगलियों से बटन दबाने भर का
या किसी हाई-प्रोफाइल पार्टी से चलते वक्त
देर है बस मुँह खोल देने भर की 
पर वे द्वारिकाधीश तो नहीं
कि सुदामा की बातें बिना मुँह खोले ही समझ जाएँ

यह मुँह खोलना भी एक कला है
कब, कहाँ, कैसे और कितना मुँह खोला जाना चाहिए
इसका सलीका होना चाहिए
मैं तो सलीका नहीं होने के कारण मुँह नहीं खोलता
मेरे वे दोस्त शायद यह सोच कर मुँह नहीं खोलते कि
हो सकता है कि सामने वाला उनसे बडा मुँह खोल दे
या उनका मुँह खोलना जाया ना हो जाए
यह भी हो सकता है कि
उन्हें मेरा परिचय दोस्त कह कर देने में
शर्मिंदगी महसूस होती हो

कॉलेज के कुछ ऐसे साथी जिनके साथ
पटना कॉलेज का कभी चक्कर काटा करता था मैं
या दरभंगा हाउस के काली मंदिर की सीढियों पर  
जेपी आंदोलन की सरगर्मियों में
गंगा की लहरें देखते जिनके साथ घंटों गप्पें जमा करती थी
अब यह याद करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं कि
जो मैं याद दिलाना चाहता हूँ वो सच है...

शायद पद हासिल करने के बाद
याददाश्त में कमी आ जाती हो
मुझ जैसा व्यक्ति जिसने
ओहदों की दौड में
अभी तक कोई मील का पत्थर नहीं देखा  
आज भी प्रेमचंद के गिल्ली डंडा कहानी के इंजीनियर की तरह
बडी शिद्दत से ढूँढा करता है कोई ऐसा दोस्त
जिसकी उपलब्धि पर बधाई देने पर वह मुझे गले लगा ले
ना कि यह पूछे,
“कोई काम है क्या?”




Wednesday, July 29, 2015

कलाम को सलाम

सपने हम पहले भी देखा करते थे
पर वे हमारे अपने कहाँ होते थे

दादाजी का सपना 
बडा होकर बनूँ मैं डॉक्टर
पिताजी का सपना
कि घर में होना चाहिए एक कलक्टर

उन सपनों की जडे नहीं थीं
पंख भी नहीं थे
जडें पनपी भी तो ज़मीं न थी
मिट्टी पकडने के लिए
ज़ंजीरों ने जकड रखा था पाँवों को
पंख फडफडाए भी तो धमनियों में रक्त नहीं था
कि पैदा हो परवाज़
और छू लें आसमान
उन सपनों के बोझ तले हम चलते रहे,
लुढकते रहे
घिसटते रहे

पर तभी उभरा
भारत के सुदूर तटवर्ती रामेश्वरम से  
एक ऐसा शख़्स
जिसके पास कहने को तो कुछ भी नहीं था
पर अनमोल ख़जाना का मालिक था वह
सपने वो भी देखता था
पर खुली आँखों से
गरीबी उसके लिए बाधक न थी,
साधक था वो,
गाँधी की तरह शरीर से नहीं,
मन से सशक्त था वह
जबीं पर लहराती ज़ुल्फों वाले इस शख़्स ने भी
हमें सपने दिखाए
ऊँची सोच के जादू की छडी उसने जैसे ही घुमाई    
उसके वे सपने
हो गए हमारे अपने

जब उसने कहा
As a young citizen of India,
Armed with technology,
knowledge
and love for my nation,
I realize,
small aim is a crime.
तो भारत के युवाओं को मिली
आत्मविश्वास की एक ठोस ज़मीं
और आसमान छू लेने की ताकत

कलाम तुम मरे नहीं
केवल शरीर छोडा है तुमने...!!  


 27.07.2015

सपनों में आना जाना


क्या तुम्हें यह ठीक लगता है कि
तकरीबन हर रात 
मेरे ख़्वाब के दरवाज़े पर आकर तुम
दस्तक दे देती हो
और मैं घबरा जाता हूँ
कि कहाँ बिठाऊँ तुम्हें
या दरवाज़े से ही विदा कर दूँ

एक अकेले के घर में वैसे ही
चीजों की कमी रहती है
न चाय पिलाने के लिए कोई
ढंग की प्याली ही है घर में
और न ही बिठाने के लिए कोई अच्छी कुर्सी, स्टूल या मोढा

पूरी रात इसी उधेडबुन में कट जाती है
कि खडे-खडे दरवाज़े पर ही बात करना
क्या अच्छा लगता होगा तुम्हें

मुझे भी तो बतला दो
कि क्या मैंने 
कभी परेशां किया है तुम्हें
ख़्वाबों या ख़यालों में
या मेरे ख्वाबों में तुम्हारा 
यूँ ही बेसबब रोज़ाना चले आना 
शुमार हो चुका है
तुम्हारी आदत में
  
मुझे तो पक्का यकीं है
गर मैं आऊँ घर तुम्हारे कभी
पलकों पर बिठाओगी मुझे
’फॉरमेलिटी’ में परीशाँ नहीं रहोगी सारी रात

गर यह सच है तो
फिर कल सपने में तुमने क्यों कहा था
के मैं न आऊँ कभी
तुम्हारे सपने में,,!!  

Tuesday, July 14, 2015

जीवन भूलने का एक लम्बा सिलसिला है.....

1..

बाहर जितना फैला आकाश
उतना ही
भीतर भी है मेरे आकाश

एक कम्प्यूटर की तरह
खुलते हैं कई ‘विंडोज’
अन्दर ही अन्दर मेरे मन में 
हर ‘विंडो’ के भीतर 
फैला होता है एक विस्तृत आकाश   
सूना-सूना,
तन्हा-तन्हा
परत दर परत जब खुलती हैं खिडकियाँ 
दिल की गहराईयों में
तो मिलता है हर ‘फोल्डर’
‘एम्प्टी’ ही... 

उन ‘फोल्डरों’ में कभी डाल रखे थे मैंने
किस्से और कहानियाँ,
दर्द के कुछ दास्तान
ज़ख़्मों के कुछ बासी निशान 
वक्त के साथ बडे ही एहतियात के साथ
‘डिलिट’ करता गया था
यादों के उन ‘जंक’ जमावडों को
कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था   
भूलने के सिवा..!!

2..

बाहर के आकाश में चमकते हैं 
चाँद और सूरज
चमकते हैं कई तारे
साथ निभाते हैं उसका
बादल और हवाएँ भी

कम्प्यूटर के नभ-डेस्कटॉप पर भी
चमकते हैं चाँद और सूरज के ‘आइकॉन्स’
जो ढँकते रहते हैं
अनगिनत तारों के छोटे-मोटे फाइल्स या फोल्डर्स     
अंतरनेत्र (इंटरनेट) में झाँक कर देखो
खुलेंगे हज़ारों ‘विंडो’,
एक मेला सा लगा रहता है हर ‘विंडो’ के अन्दर
रौनक़ें रहती हैं उस मेले में   

पर मेरे भीतर के आकाश में
तम का घर है
'फॉरमेटिंग' की जरूरत है उसे 
फिर कोई 'एंटी-वायरस' भी लोड करना होगा
रौशन करने के लिए
यह आकाश....!!

3..

हर शाम
चराग जलते ही
अपने बुझे हुए चाँद और सूरज लिए
मन के 'डेस्कटॉप' पर
रह-रह कर उभर आते हैं                      
अंतर्मन से कुछ पुराने ‘पोस्ट्स’            
आदतन मैं भी ‘रिस्टोर’ किए देता हूँ
’रिसाइकल बिन’ से वे ‘पुराने फाइल्स’         
संस्कारी हूँ, घर आए अतिथि को
यूँ ही वापस नहीं लौटा सकता
पाँव फैला कर बैठ जाते हैं
मेरे आँगन में फिर ये मेहमाँ
खातिर-तवज्जो के बावजूद जल्दी नहीं उठते
और मैं सोचता रहता हूँ
जीवन क्या है?

जीवन भूल जाने और फिर याद करने का
एक लम्बा सिलसिला 
ही तो है....