Tuesday, July 14, 2015

जीवन भूलने का एक लम्बा सिलसिला है.....

1..

बाहर जितना फैला आकाश
उतना ही
भीतर भी है मेरे आकाश

एक कम्प्यूटर की तरह
खुलते हैं कई ‘विंडोज’
अन्दर ही अन्दर मेरे मन में 
हर ‘विंडो’ के भीतर 
फैला होता है एक विस्तृत आकाश   
सूना-सूना,
तन्हा-तन्हा
परत दर परत जब खुलती हैं खिडकियाँ 
दिल की गहराईयों में
तो मिलता है हर ‘फोल्डर’
‘एम्प्टी’ ही... 

उन ‘फोल्डरों’ में कभी डाल रखे थे मैंने
किस्से और कहानियाँ,
दर्द के कुछ दास्तान
ज़ख़्मों के कुछ बासी निशान 
वक्त के साथ बडे ही एहतियात के साथ
‘डिलिट’ करता गया था
यादों के उन ‘जंक’ जमावडों को
कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था   
भूलने के सिवा..!!

2..

बाहर के आकाश में चमकते हैं 
चाँद और सूरज
चमकते हैं कई तारे
साथ निभाते हैं उसका
बादल और हवाएँ भी

कम्प्यूटर के नभ-डेस्कटॉप पर भी
चमकते हैं चाँद और सूरज के ‘आइकॉन्स’
जो ढँकते रहते हैं
अनगिनत तारों के छोटे-मोटे फाइल्स या फोल्डर्स     
अंतरनेत्र (इंटरनेट) में झाँक कर देखो
खुलेंगे हज़ारों ‘विंडो’,
एक मेला सा लगा रहता है हर ‘विंडो’ के अन्दर
रौनक़ें रहती हैं उस मेले में   

पर मेरे भीतर के आकाश में
तम का घर है
'फॉरमेटिंग' की जरूरत है उसे 
फिर कोई 'एंटी-वायरस' भी लोड करना होगा
रौशन करने के लिए
यह आकाश....!!

3..

हर शाम
चराग जलते ही
अपने बुझे हुए चाँद और सूरज लिए
मन के 'डेस्कटॉप' पर
रह-रह कर उभर आते हैं                      
अंतर्मन से कुछ पुराने ‘पोस्ट्स’            
आदतन मैं भी ‘रिस्टोर’ किए देता हूँ
’रिसाइकल बिन’ से वे ‘पुराने फाइल्स’         
संस्कारी हूँ, घर आए अतिथि को
यूँ ही वापस नहीं लौटा सकता
पाँव फैला कर बैठ जाते हैं
मेरे आँगन में फिर ये मेहमाँ
खातिर-तवज्जो के बावजूद जल्दी नहीं उठते
और मैं सोचता रहता हूँ
जीवन क्या है?

जीवन भूल जाने और फिर याद करने का
एक लम्बा सिलसिला 
ही तो है....



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