सपने हम पहले भी देखा करते थे
पर वे हमारे अपने कहाँ होते थे
दादाजी का सपना
बडा होकर बनूँ मैं डॉक्टर
पिताजी का सपना
कि घर में होना चाहिए एक कलक्टर
उन सपनों की जडे नहीं थीं
पंख भी नहीं थे
जडें पनपी भी तो ज़मीं न थी
मिट्टी पकडने के लिए
ज़ंजीरों ने जकड रखा था पाँवों को
पंख फडफडाए भी तो धमनियों में रक्त नहीं था
कि पैदा हो परवाज़
और छू लें आसमान
उन सपनों के बोझ तले हम चलते रहे,
लुढकते रहे
घिसटते रहे
पर तभी उभरा
भारत के सुदूर तटवर्ती रामेश्वरम से
एक ऐसा शख़्स
जिसके पास कहने को तो कुछ भी नहीं था
पर अनमोल ख़जाना का मालिक था वह
सपने वो भी देखता था
पर खुली आँखों से
गरीबी उसके लिए बाधक न थी,
साधक था वो,
गाँधी की तरह शरीर से नहीं,
मन से सशक्त था वह
जबीं पर लहराती ज़ुल्फों वाले इस शख़्स ने भी
हमें सपने दिखाए
ऊँची सोच के जादू की छडी उसने जैसे ही घुमाई
उसके वे सपने
हो गए हमारे अपने
जब उसने कहा
’As a young citizen of India,
Armed with technology,
knowledge
and love for my nation,
I realize,
small aim is a crime.
तो भारत के युवाओं को मिली
आत्मविश्वास की एक ठोस ज़मीं
और आसमान छू लेने की ताकत
कलाम तुम मरे नहीं
केवल शरीर छोडा है तुमने...!!
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