Wednesday, September 9, 2015

दिनचर्या




रोज सबेरे एक दीया सा जलता है   
रौशन होती हैं आँखें मेरी
लौ धीरे-धीरे होती जाती है तेज
जैसे-जैसे सूरज चढता  है   

इक हौसला निखरता है 
उस लौ की आँच में
और तन तपता है

शाम ढलते ही
पडने लगती है लौ मद्धम मद्धम
बुझ जाता है दिल का चराग
रात होते ही

अँधेरे तन्हा कमरे में
फिर समेटता रहता हूँ 
उन बुझे हौसलों की राख
और सहेजता हूँ उस राख में दबी
कोई छोटी सी चिनगारी
के जल उठे फिर से दीया
अगली सुबह .!!

02.09.2015

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