कभी कभी मैं सोचता हूँ
गर क्षमा नहीं होती
तो क्या होता
कितना बोझ होता सीने पर
गाँठें नहीं खुली होतीं
ज़ेहन से टीस उठती बारहा
और दिल भरा भरा होता
ज़ुबां में रस नहीं होता
नाउम्मीदी घिरी होती
घृणा के बोझ से दबा होता
और मन घुटा घुटा रहता
धुआँ उठता हमेशा यादों का
चिनगारी दबी होती
इक ज़रा हवा पाकर
हर घर जला हुआ होता
सुख-चैन, अमन नहीं होता
उन्मुक्त कहाँ गगन होता
उजड़ा हुआ चमन होता
बेरुख़ी का चलन होता
पाँव में बँधा वज़न होता
दुखों से मैं घिरा होता
औरों की क्या कहूँ ख़ुद की
नज़र से मैं गिरा होता
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