Wednesday, September 9, 2015

मेरे कुछ दोस्त..



मेरे कुछ दोस्त ऐसे भी हैं जो
फोन इसलिए नहीं उठाते
कहीं मैं कोई काम न बोल दूँ
यह जानते हुए भी कि
मैंने आज तक काम के लिए
कभी भी अपना मुँह नहीं खोला

दरअसल मेरी दोस्ती
मुँह नहीं खोलने के कारण ही टिकी है
जबकि हम दोनों एक ही स्कूल में
एक ही शिक्षक से पढे हैं
फ्रेंड इन नीड इज फ्रेंड इंडीड 

मैं गर मुँह खोल भी दूँ
और कोई काम बोल भी दूँ
तो उनके लिए यह
खेल है बस ऊँगलियों से बटन दबाने भर का
या किसी हाई-प्रोफाइल पार्टी से चलते वक्त
देर है बस मुँह खोल देने भर की 
पर वे द्वारिकाधीश तो नहीं
कि सुदामा की बातें बिना मुँह खोले ही समझ जाएँ

यह मुँह खोलना भी एक कला है
कब, कहाँ, कैसे और कितना मुँह खोला जाना चाहिए
इसका सलीका होना चाहिए
मैं तो सलीका नहीं होने के कारण मुँह नहीं खोलता
मेरे वे दोस्त शायद यह सोच कर मुँह नहीं खोलते कि
हो सकता है कि सामने वाला उनसे बडा मुँह खोल दे
या उनका मुँह खोलना जाया ना हो जाए
यह भी हो सकता है कि
उन्हें मेरा परिचय दोस्त कह कर देने में
शर्मिंदगी महसूस होती हो

कॉलेज के कुछ ऐसे साथी जिनके साथ
पटना कॉलेज का कभी चक्कर काटा करता था मैं
या दरभंगा हाउस के काली मंदिर की सीढियों पर  
जेपी आंदोलन की सरगर्मियों में
गंगा की लहरें देखते जिनके साथ घंटों गप्पें जमा करती थी
अब यह याद करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं कि
जो मैं याद दिलाना चाहता हूँ वो सच है...

शायद पद हासिल करने के बाद
याददाश्त में कमी आ जाती हो
मुझ जैसा व्यक्ति जिसने
ओहदों की दौड में
अभी तक कोई मील का पत्थर नहीं देखा  
आज भी प्रेमचंद के गिल्ली डंडा कहानी के इंजीनियर की तरह
बडी शिद्दत से ढूँढा करता है कोई ऐसा दोस्त
जिसकी उपलब्धि पर बधाई देने पर वह मुझे गले लगा ले
ना कि यह पूछे,
“कोई काम है क्या?”




No comments: