क्या तुम्हें यह ठीक लगता है कि
तकरीबन हर रात
मेरे ख़्वाब के दरवाज़े पर आकर तुम
दस्तक दे देती हो
और मैं घबरा जाता हूँ
कि कहाँ बिठाऊँ तुम्हें
या दरवाज़े से ही विदा कर दूँ
एक अकेले के घर में वैसे ही
चीजों की कमी रहती है
न चाय पिलाने के लिए कोई
ढंग की प्याली ही है घर में
और न ही बिठाने के लिए कोई अच्छी कुर्सी, स्टूल या मोढा
पूरी रात इसी उधेडबुन में कट जाती है
कि खडे-खडे दरवाज़े पर ही बात करना
क्या अच्छा लगता होगा तुम्हें
मुझे भी तो बतला दो
कि क्या मैंने
कभी परेशां किया है तुम्हें
ख़्वाबों या ख़यालों में
या मेरे ख्वाबों में तुम्हारा
यूँ ही बेसबब रोज़ाना चले आना
यूँ ही बेसबब रोज़ाना चले आना
शुमार हो चुका है
तुम्हारी आदत में
मुझे तो पक्का यकीं है
गर मैं आऊँ घर तुम्हारे कभी
पलकों पर बिठाओगी मुझे
’फॉरमेलिटी’ में परीशाँ नहीं रहोगी सारी रात
गर यह सच है तो
फिर कल सपने में तुमने क्यों कहा था
के मैं न आऊँ कभी
तुम्हारे सपने में,,!!
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