तस्वीरों से करती हूँ बातें
जब भी तनहा रहती हूँ
कैसे कहूँ अपने बारे में
मैं अच्छी हूँ, सच कहती हूँ
तुमसे बिछडे बरसों बीते
फिर भी मैं यह कहती हूँ
जब भी दिल मेरा दुखता है
याद तुम्हें मैं करती हूँ
कैसे मेरे दिन कटते हैं
क्या क्या सुनना पडता है
रातें बीतें आँखों में ही
दीवारों को तकती हूँ
फिर कहती हूँ दिल से अपने
अच्छा ही हुआ तुम चले गए
मैं जाती और तुम जो रहते
सोच के अक्सर डरती हूँ
याद है तुमको? तुम कुछ कहते
हम सब गौर से सुनते थे
अब तुम जो रहते और कुछ कहते,
कोई न सुनता सच कहती हूँ
जिनको हमने कुछ कहना सिखाया
वे कहते, बस! चुप ही रहो
मौन ही रहकर दिन कटते अब
कुछ कहने से भी डरती हूँ
बिस्तर जो गीली करते थे
अब आँखें गीली करते हैं
इससे अच्छा बेऔलाद ही होना
अक्सर सोचा करती हूँ
दिन भर आवारा बन फिरते
बंद कमरे में रात में लडते
टकराते बरतन की खनखन
सुनकर भी अनसुन करती हूँ
सौ सौ पहरे मेरे ऊपर
कोई आए तो छिपना पडता है
आहट जो हुई तस्वीर तेरी
तकिए के नीचे रखती हूँ
और भी बातें हैं कहने को
फिर और किसी दिन कह लेंगे
ज़ख्म ज़रा यह भर जाए
अच्छा मैं अब बस करती हूँ
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