Saturday, August 27, 2011

अम्मा तुम कितनी भोली थी...


अम्मा तुम कितनी भोली थी
चुपचाप मेरे संग हो ली थी


छोड के अपने गाँव को
उस पीपल की छाँव को
आँगन की दहलीज को
छोटी-मोटी चीज को
पुरखों के उस डेरा को
सदियों के रैन बसेरा को
छोड के अपने शासन को
मेरे उस आश्वासन को
सच मान, नहीं कुछ बोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी 

टीन के अपने बक्से को
घर के अपने नक्शे को
पीतल के कुछ बरतन को
अखबारों की कतरन को
स्याही फैले कुछ पन्नों को
चाँदी के अपने गहनों को
कागज के उन टुकडों को
मिट्टी से जुडे कुछ मुखडों को
सब छोड, नैन भिगो ली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी 

फ्रेम लगे उस दर्पण को
उस घर में गुजरे यौवन को
सन बावन की एलबम को
मीठी मीठी धडकन को
श्याम श्वेत तस्वीरों को
उन दुर्लभ जागीरों को
कुछ रंग उतरते फोटो को
कुछ खट्टी मीठी चोटों को
जिस घर में आई डोली थी
सब भूल, नहीं मुँह खोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी 

तुलसी के उस पौधे को
केला और नीम, पपीते को
सब्जी के फैले लत्तर को
साज सामान बहत्तर को
लोगों के दिल के आदर को
सखियों की आँखें कातर को
बाबूजी की उन यादों को
बहनों की कई फरियादों को
सुख दुख की आँख-मिचौली छोड
मुँह फेर जरा सा रो ली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी.

कितनों को समझाती थी
सुख दुख की सबके साथी थी
सबकी अम्मा कहलाती थी
बच्चों की तुम ही दादी थी
गाँव की तुम ही थाती थी
ममता सब पर बरसाती थी
उलझन में भी मुस्काती थी
घर का दीया और बाती थी
चीजें सबको देने के लिए
गठरी अपनी जो खोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी

मेरे सुख की ही खातिर तुम
शहर में मेरी मेहनत को
खाने पीने की दिक्कत को
महरी के बढते तेवर को
नित रोज नए कलेवर को
लोगों के मिलने जुलने को
उनके घर आने जाने को
तुमसे मिलने को आतुर वे
सच जान, नहीं मुँह खोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी.



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