याद करो....
जब मिले थे हम तुम
अमलतास की छाँव में
कानों कान खबर फैली थी
कैसे पूरे गाँव में
वक्त ने करवट बदली ऐसे
जाने बिछड गए हम कैसे
चुभते रहे विरह के काँटे
तब से अब तक पाँव में..
याद करो...
तुम्हारी डायरी का यह पन्ना
कल ही तो मिला था मुझे
जब मेज की दराज में पडी
बरसों पुरानी कापियों को
उलट-पुलट कर देख रहा था मैं
आज ही सबेरे “मार्निंग वाक” में
गया था नहर के किनारे उसी
अमलतास के झुरमुट में
खडा रहा मैं उसी पेड के नीचे
घंटों...
याद है तुम्हें..
जब मैंने नेल-कटर से खरोंच कर
पेड की एक शाख में
लिखा था तुम्हारा नाम
और जोडा था तुम्हारे नाम
से अपने नाम का पहला अक्षर
बिल्कुल छोटे में..
सकुचाते हुए
जैसे किसी दरवाजे पर
कोई दे रहा हो दस्तक..
धीरे से....हौले से
फिर नामों को कैद किया
पान के पत्ते की डिजाइन बना कर
एक दिल के अन्दर....
तब तुम कितना घबराई थी
गाँव वाले क्या कहेंगे...
तुमने यह भी कहा था
तुम्हारी हथेली में रेखाएँ हैं कम
मेरी हथेली में भी न जाने कितनी
रेखाएं हैं अधूरी..
मुझे मालूम था, वे रेखायें
मेरी हथेली की उन रेखाओं से
आकर नहीं मिलतीं..
मेरी मायूसियों को देख
तुम पिघल गई थी एक पल के लिए
जब तुम्हारी पलकों की कतारों में
उभर आए थे मोतियों के दो दाने ....
याद करो...
मैंने उन दानों को
सहेजा था अपनी ऊँगलियों के पोरों पर
कुछ देर यूँ ही देखता रहा था
गोल-गोल मोतियों को
और फिर बडे ही एहतियात के साथ
रख दिया था
शाख पर उभरे तेरे नाम के बीचोबीच
याद है न तुम्हें...
जानती हो ?
ठीक उसी जगह से ..
बिल्कुल तुम्हारे नाम के बीच से
निकल आई हैं डालियाँ....
कभी आकर देखना
उन डालियों की हरी भरी अनगिनत पत्तियाँ
और खिले पीले-पीले फूल भी...
उन फूलों को छूकर देखा मैंने
ऐसा लगा जैसे छूआ हो तुम्हें
तुम्हारे स्पर्श का अहसास होते ही
अपनी बाँहों में पेड को घेर लिया मैंने भी
ठीक वैसे ही
जैसे बरसों पहले तुमने किया था...
न जाने कितनी देर तक था मैं खडा
बाँहों में समेटे अमलतास के पेड को
मानो वह पेड नहीं, तुम थी
टप-टप माथे पर बरसते पीले फूल
यूँ लग रहे थे जैसे कोई
अक्षत फेंक दे रहा हो आशीष...
मुझे अब भी याद है
कैसे तुमने दुलराया था एक एक फूल
और एक एक पत्ते को
तितली बन कर...
मैंने फिर
पकडी एक तितली भी
जिसके कोमल पंखुडियों का आभास होते ही
हालाकि तुरंत ही छोड दिया था मैंने
पर उसके रंग मेरी ऊँगलियों में लगे रहे शाम तक
और खुशबू तुम्हारे बदन की
आती रही
रात भर...!!
3 comments:
याद करो जब मिले थे हम - तुम ...बहुत ही प्यारी कविता है...आपकी कहानियां तो मैनें पहले भी पढ़ी थीं कविता से पहली बार रूबरू हुई हूँ....भावपूर्ण कविता है...सुंदर अभिव्यक्ति...
चाचा गुलज़ार की याद आ गयी:
याद है इक दिन,
मेरी मेज पे बैठे बैठे
सिगरेट की डिबिया पर तुमने
छोटे से एक पौधे का स्केच बनाया था.
आकर देखो,
उस पौधे पे फूल आया है!!
धन्यवाद! जिस बात को कहने में चाचा गुलज़ार ने सिर्फ चार पंक्तियाँ ली , उसी को कहने में मुझे चार पेज लगाने पड़े. यही अंतर है चाचा और भतीजा में. कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली
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