Saturday, August 27, 2011

दिन की शुरुआत

सबेरे उठते ही मत पढ लेना अखबार
तुम्हारा सारा दिन हो जाएगा बेकार
पहले ही पृष्ठ पर छपी
हत्या, बलात्कार, जमाखोरी और भ्रष्टाचार की खबरों से
जग जाएगा तुम्हारे अन्दर का जानवर भी
फिर नाहक ही
बेवजह
बिना बात के
मॉं पर चीखोगे
पत्नी पर चिल्लाओगे
बच्चों पर झल्लाओगे
खाने की थाली ठुकराओगे

अपने ही मोहल्ले में हुई
किसी घर में
दहेज के लिए
किसी मासूम की
हत्या की खबर पढोगे
तो दीवारों से
सर फोडोगे

शहर के किसी खास व्यक्ति के
देह व्यापार में लिप्तता की खबर पढोगे
तो चौंकोगे
भ्रम टूटने का दंश झेलोगे

सिनेमा वाले पृष्ठ में
तारिकाओं की अधनंगी तस्वीर देखोगे
तो शरमाओगे,
झेंपोगे,
बच्चों से मुँह चुराओगे
उनके उन्मुक्त, स्वच्छन्द जीवन शैली की कहानियाँ पढोगे
तो अपने को वर्जनाओं में जकडे हुए पाओगे
मुक्ति की छटपटाहट में
भटक जाओगे
घर तोडोगे

करमू के अदम्य साहस की खबर
जिसने कोशी की बाढ की उफनती लीलती लहरों से
अकेले ही
बारह लोगों की जान बचाई थी,
इश्तहारों के बीच
कहीं दम तोडती देखोगे
तो दुखी होगे
गुस्साओगे

मास्टर साहब के सपनों की कहानी
जिन्होंने पूरे गाँव को साक्षर बनाने की ठानी,
अखबार में
ढूँढते रह जाओगे

और....तुम्हारे गाँव के रहमत चाचा के
संघर्षों की गाथा,
उनकी बूढी आँखों में
भविष्य की चिंता की कथा
उनकी पथराई जागती आँखों में कटी
अनगिनत रातों की व्यथा
जिनकी इकलौती औलाद ने
कारगिल युद्ध में शहादत पाई थी,
अखबार में ढूँढने की सोचना भी मत
पछताओगे


मेरी मानो
सबेरे उठते ही
कुछ पल के लिए
आँखें बन्द कर लेना और सोचना
किसी बच्चे की खिलखिलाहट को
किसी दोस्त के उन्मुक्त सानिध्य को
किसी बूढे-बूढी के पोपले मुँह को
उनके चेहरे की अनगिनत झुर्रियों को
उनके दूध से सफेद रुई जैसे रेशमी बालों को
अपनी माँ के दिन-रात की मेहनत को
उनके पाँव की फटी बेवाई को
अपने दिवंगत बुज़ुर्गों को
उनके स्नेह सिक्त वचनों को
उनके  पसीनों की खुशबू को
उनके वापस घर आने पर
फैली घर की रौनक को
अपने सर पर उनके स्पर्श को
और उनकी स्निग्ध हँसी को

इतना करने के बाद
हो सके तो मुस्कुरा देना और
धीरे से आँखें खोल देना
यकीन मानो,
दिन ही नहीं
तुम्हारी दुनिया भी संवर जाएगी



तस्वीर से बातें


तस्वीरों से करती हूँ बातें
जब भी तनहा रहती हूँ
कैसे कहूँ अपने बारे में
मैं अच्छी हूँ, सच कहती हूँ

तुमसे बिछडे बरसों बीते
फिर भी मैं यह कहती हूँ
जब भी दिल मेरा दुखता है
याद तुम्हें मैं करती हूँ

कैसे मेरे दिन कटते हैं
क्या क्या सुनना पडता है
रातें बीतें आँखों में ही
दीवारों को तकती हूँ

फिर कहती हूँ दिल से अपने
अच्छा ही हुआ तुम चले गए
मैं जाती और तुम जो रहते
सोच के अक्सर डरती हूँ

याद है तुमको? तुम कुछ कहते
हम सब गौर से सुनते थे
अब तुम जो रहते और कुछ कहते,
कोई न सुनता सच कहती हूँ

जिनको हमने कुछ कहना सिखाया
वे कहते, बस! चुप ही रहो
मौन ही रहकर दिन कटते अब
कुछ कहने से भी डरती हूँ

बिस्तर जो गीली करते थे
अब आँखें गीली करते हैं
इससे अच्छा बेऔलाद ही होना
अक्सर सोचा करती हूँ

दिन भर आवारा बन फिरते
बंद कमरे में रात में लडते
टकराते बरतन की खनखन
सुनकर भी अनसुन करती हूँ

सौ सौ पहरे मेरे ऊपर
कोई आए तो छिपना पडता है
आहट जो हुई तस्वीर तेरी
तकिए के नीचे रखती हूँ

और भी बातें हैं कहने को
फिर और किसी दिन कह लेंगे
ज़ख्म ज़रा यह भर जाए
अच्छा मैं अब बस करती हूँ


अम्मा तुम कितनी भोली थी...


अम्मा तुम कितनी भोली थी
चुपचाप मेरे संग हो ली थी


छोड के अपने गाँव को
उस पीपल की छाँव को
आँगन की दहलीज को
छोटी-मोटी चीज को
पुरखों के उस डेरा को
सदियों के रैन बसेरा को
छोड के अपने शासन को
मेरे उस आश्वासन को
सच मान, नहीं कुछ बोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी 

टीन के अपने बक्से को
घर के अपने नक्शे को
पीतल के कुछ बरतन को
अखबारों की कतरन को
स्याही फैले कुछ पन्नों को
चाँदी के अपने गहनों को
कागज के उन टुकडों को
मिट्टी से जुडे कुछ मुखडों को
सब छोड, नैन भिगो ली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी 

फ्रेम लगे उस दर्पण को
उस घर में गुजरे यौवन को
सन बावन की एलबम को
मीठी मीठी धडकन को
श्याम श्वेत तस्वीरों को
उन दुर्लभ जागीरों को
कुछ रंग उतरते फोटो को
कुछ खट्टी मीठी चोटों को
जिस घर में आई डोली थी
सब भूल, नहीं मुँह खोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी 

तुलसी के उस पौधे को
केला और नीम, पपीते को
सब्जी के फैले लत्तर को
साज सामान बहत्तर को
लोगों के दिल के आदर को
सखियों की आँखें कातर को
बाबूजी की उन यादों को
बहनों की कई फरियादों को
सुख दुख की आँख-मिचौली छोड
मुँह फेर जरा सा रो ली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी.

कितनों को समझाती थी
सुख दुख की सबके साथी थी
सबकी अम्मा कहलाती थी
बच्चों की तुम ही दादी थी
गाँव की तुम ही थाती थी
ममता सब पर बरसाती थी
उलझन में भी मुस्काती थी
घर का दीया और बाती थी
चीजें सबको देने के लिए
गठरी अपनी जो खोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी

मेरे सुख की ही खातिर तुम
शहर में मेरी मेहनत को
खाने पीने की दिक्कत को
महरी के बढते तेवर को
नित रोज नए कलेवर को
लोगों के मिलने जुलने को
उनके घर आने जाने को
तुमसे मिलने को आतुर वे
सच जान, नहीं मुँह खोली थी
अम्मा तुम कितनी भोली थी.



माँ


घर के अन्दर रहता कुत्ता
बाहर के कमरे में माँ
सोफे पर सोता है कुत्ता
चरमर खाट पर सोती माँ

मुर्ग-मुसल्लम बिस्किट खाता
बासी रोटी खाती माँ
मैकडोनाल्ड से बर्गर जब आता
भूखी ही सो जाती माँ

कुत्ते को गोदी में उठाते
झिडकी सुनती रहती माँ
सैर सपाटे करते हैं सब
घर की पहरेदारी को माँ

जन्मदिन भी इसका मनता
मौत की बाट निहारे माँ
कुत्ते के हैं ठाट निराले
कुत्ते से भी बदतर माँ

देर सबेरे जब सब उठते
चाय बनाकर हाजिर माँ
झाडू-पोंछा कपडे धोती
चूल्हा-चौका करती माँ

मेमसाहब को कैक्टस भाता
तुलसी पूजन करती माँ
क्लब पार्टियों में सब रहते
संध्या वंदन करती माँ

उसके पाँव बेवाई फटे हैँ
चेहरा झुर्रियों वाली माँ
बहुओं के फैशन के आगे
बदसूरत सी दिखती माँ

दीवारें हैं भाई उठाते
उनपर छत करती है माँ
लेकिन नित नए तानों से उनके
तिल-तिल मरती रहती माँ

भाइयों की यह बडी समस्या
किसके पास रहेगी माँ
पढे लिखों के जमघट में अब
मूरख बन कर रह गई माँ

कोई न सुनता उसकी बातें
कुछ कहने में डरती माँ
चुप रह कर ही वक्त गुजारे
गुमसुम बैठी रहती माँ

बरसों पुरानी कुछ चीजों में
क्या क्या ढूँढा करती माँ
बाबूजी की तस्वीरों से
बातें करती रहती माँ

कोख के जाए कभी तो चेते
ऐसा सोचा करती माँ
रामायण से उपमा देती
किस दुनिया में रहती माँ

घर घर देखा एक ही लेखा
हर घर में ऐसी एक माँ
जिनके चरण कभी देव थे बसते
अब कविता में मिलती माँ


चाहत


कोंपलों के फूटने की तरह
मैं भी प्रस्फुटित होऊँ
खिलूँ, बढूँ, पुष्ट हो जाऊँ
लोगों में प्राणवायु भरूँ
और
वक्त के साथ
पीत वस्त्र धारण कर
धीरे से
स्वेच्छा से
मौन ही
बिना दुख के
वृंत से पृथक हो जाऊँ
बस यही मेरी चाहत है
हरे पत्तों का बेवजह टूट कर गिरना
मुझे अच्छा नहीं लगता.

काल


सूरज के चूल्हे को
दिन और रात की लकडियोँ से जलाता
माया की इक बडी हाँडी में
माह और मौसम की छोलनी से चलाता
काल
हमें पकाता
बस यही सत्य है .

बाल श्रम

1.
वह बच्चा ही तो था
जो अफसरों की मेज़ों पर
रखता था प्लेटेंþ
प्लेटें जिनमें सजे होते थे
पेस्ट्री, काजू, पिस्ते

अफसर जो हर माह इकट्ठे होते
उस वातानुकूलित कॉंन्फरेंस हॉल में
बहस करते,
दिमाग भिडातेç,
बीच-बीच में काजू खाते
हल ढूढने की कोशिश करते
कि कैसे देश से बाल-श्रम दूर हो

समितियाँ बनाते
दौरे करते
आँकडे रखते
अगली तारीख तय करते
फिर इकट्ठा होते
उसी कॉंन्फरेंस हॉल में

फिर आता वही बच्चा
सजाता उनके सामने प्लेटें
रखता पेस्ट्री, काजू, पिस्तेç

मीटिंग के बाद प्लेटों को
निर्विकार दृस्टि से देखता
अफसरों के छोडे काजू-पिस्तों को समेटता
तभी आ जाता झगरू सिंह
उठा ले जाता सारे काजू-पिस्ते
अपनी घरवाली के लिए
कितनी हैरत कि उस बच्चे ने
आजतक काजू नहीं चखे
न ही उसने खाए कभी पिस्ते
उसकी जीभ से लार भी नहीं टपकती
क्योंकि उसे काजू-पिस्ते नहीं
चाहिए दो जून की रोटी 


2.

वह बच्चा ही तो था
जो चुनता मलबों से टीन, शीशी, काग़ज
और प्लास्टिक की बोतलेंÞ
भरता पीठ पर लादे एक बोरी में

बोरी जो उसकी दुनिया होती
जिसमें भरता वह अपने सपने
रात मेंçÞ बन जाती यह चादर
ठंढ में वह उसके अन्दर होता

मलबों की वे दुर्लभ चीजें
उसके लिए कितनी कीमती होतींÞ
पर वह भी है कितना कीमती
काश हमारी समझ ये होती

हम तो उसे समझते
मलबे का ही एक वो हिस्सा
कहलाता कल की जो धरोहर
बन गया आज ही एक किस्सा

कचरे में खोया यह हीरा
न जाने हम कब चुन पायेंगे
काश हमारे पास भी होती
सपनों की वैसी ही इक बोरी
और उस बच्चे जैसी दृष्टिþ

3

वह बिल्कुल बच्चा ही था
जो उठ जाता
सूरज के उगने के पहले ही
फिरता ट्रेनों में
लिए अपने वजन से भी ज्यादा भारी
झालमूरी की टोकरी
जो उसका बापू रोज़ सवेरे
लाद देता
उसकी गर्दन में

उसे मालूम होता
डालना कितने ग्राम में ý
कितनी मिर्ची,
कितना तेल,
प्याज और नमक  ý
पहचानता वह डेली पैसेंजर के अपने ग्राहक भी
रामबाबू को  बिना पूछे ही पाँच रुपये की थमाता
अगला स्टेशन आने पर
ट्रेन के रुकने के पहले ही
उतर जाता
फिर डाउन ट्रेन में हीरालाल को
दस रुपए की झालमूरी देता

रात वह और उसका बापू
रखते दिनभर की कमाई
उसकी माँ की खुरदरी हथेलियों पर
फिर मिलती दोनों को
रोटियाँ और एक टुकडा प्याज
सोते दोनों फिर आँखों में लिए
मीठे सपने
कि कल की बिक्री होगी
आज से भी अधिक
और मिलेगी एक सब्जी भी
रोटी और प्याज पर

4.

वह बच्चा ही तो था
जो रात के ग्यारह बजे
रेलवे प्लैटफॉर्म पर
चिल्ला-चिल्ला कर
बेचता अखबार
कहता,
पढिए बाइस तारीख का पेपर इक्कीस को ही
कल का अखबार आज ही

हमारी कल की तस्वीर
आज ही बताने वाला
खुद बीते हुए कल की तस्वीर बना
बैठा है स्टेशन की चकाचौंध में
आते-जाते लोगों की रेलम-पेल में
पडा है खुद
एक पुराने अखबार की तरह
रेलवे ओवरब्रिज की सीढियों पर
ट्रेनों की पायदान पर
या दोनों टॉयलेट के बीच

इक्कीस का बाइस होने से पहले
इन बच्चों की आज
सुधर जाए
तो कितना अच्छा

5.


हाँ, वह बच्चा ही था
जिसके खुद के पाँवों ने
नहीं देखे कभी जूतेç
पर करता ट्रेनों में जूते पॉलिश सबके
निहारतीं नजरें उसकी
हमेशा लोगों के पैर
ना काहू से दोस्ती
ना काहू से बैर

जूते वाले पैर देखते ही
खडा हो जाता सम्मुख उनके
करता चमकाने का वादा
निकालता तरह-तरह के क्रीम
छोटी-मोटी शीशियों सेç
रगडता, चमकाता,
पाँवों में जूते पहनाता
फीते बाँधता
हाथ फैलाता
पाँच की जगह चार रुपए देख
घिघियाता
हाथ पसारता
चिरौरी करता
पाँव पकडता
गाली सुनता
थप्पड खाता
फिर चल पडता
दूसरे पाँवों की ओर
चमकाने जूते
और फिर खाने लप्पड-झप्पड
या कोई भद्दी सी गाली
माँ की
जिसे उसने सिर्फ एक बार देखा है
आसमान में
सितारों के बीच
और कहते सुना है,
जूते पॉलिश कर लेना पर नहीं माँगना भीख
जितना रगडो उतना चमके जीवन की यह सीख

दूसरों के जूते चमकाने वाले
इन बच्चों की किस्मत
न जाने कब चमकेगी


6.

वह बच्चा ही तो था
जो ट्रेन में
सवारियों के उतरने के पहले ही
कम्पार्टमेंट में
घुस आया था

जेबकतरा समझ
लोगों ने
कर डाली थी
उसकी पिटाईê

पर वह तो आया था
लेने लोगों के छोडे, अधपिए
पानी की बोतलें
ताकि पानी भर कर
शाम की ट्रेन में
बिसलेरी...बिसलेरी.. कह कर बेच सके

बिसलेरी उसके लिए पानी का अंग्रेजी है
पानी बोलने में उसे लगता है डर
न जाने कब लोग उसका
पानी ही न उतार देंÞ

7.

झगरू सिंह के आने के पहले,
रद्दी चुनने वाले के मलबे का हिस्सा बनने के पहले
झालमूरी वाले के भूखे  सोने के पहले
अखबार बेचने वाले का बीते हुए अखबार होने के पहले
जूते चमकाने वाले जीवन बदरंग होने से पहले
बिसलेरी वाले के पिटे जाने के पहले
इन बच्चों की आज सुधर जाए
तो कितना अच्छा.


    

यह बच्चा किसका बच्चा है

यह बच्चा किसका बच्चा है?

जिसकी मुट्ठी कसी हुई है
आँखें जिसकी धँसी हुई हैं
जिसकी ज़ुल्फें बढी हुई है
त्योरी जिसकी चढी हुई हैं
यह बच्चा किसका बच्चा है?

आँखें जिसकी याचक जैसी
पलकों में कीचड है फैला
क्यों वह कभी नहीं नहाता
कपडे और बदन है मैला
यह बच्चा किसका बच्चा है?

आस्तीन जिसके चढे हुए हैं
नाखून जिसके बढे हुए हैं
जिसकी निकर फटी हुई हैं
बाँहें जिसकी कटी हुई हैं
यह बच्चा किसका बच्चा है?

क्यों वह फेंकी रोटी खाता
या फिर गाली खाकर सोता
प्लैटफॉर्म की खुली जमीं पर
एक कुत्ते के साथ ही रहता
यह बच्चा किसका बच्चा है?

कहीं तो उसकी माँ भी होगी
कोई तो उसका बापू होगा
फिर वो इतना तन्हा क्यूँ है
रहता सबसे अलग-थलग है
यह बच्चा किसका बच्चा है ?

Monday, August 8, 2011

याद करो...

याद करो....
जब मिले थे हम तुम
अमलतास की छाँव में
कानों कान खबर फैली थी
कैसे पूरे गाँव में
वक्त ने करवट बदली ऐसे
जाने बिछड गए हम कैसे
चुभते रहे विरह के काँटे
तब से अब तक पाँव में..
याद करो...

तुम्हारी डायरी का यह पन्ना
कल ही तो मिला था मुझे
जब मेज की दराज में पडी
बरसों पुरानी कापियों को
उलट-पुलट कर देख रहा था मैं

आज ही सबेरे मार्निंग वाक में
गया था नहर के किनारे उसी
अमलतास के झुरमुट में
खडा रहा मैं उसी पेड के नीचे
घंटों...
याद है तुम्हें..
जब मैंने नेल-कटर से खरोंच कर
पेड की एक शाख में
लिखा था तुम्हारा नाम
और जोडा था तुम्हारे नाम
से अपने नाम का पहला अक्षर
बिल्कुल छोटे में..
सकुचाते हुए
जैसे किसी दरवाजे पर
कोई दे रहा हो दस्तक..
धीरे से....हौले से
फिर नामों को कैद किया
पान के पत्ते की डिजाइन बना कर
एक दिल के अन्दर....
तब तुम कितना घबराई थी
गाँव वाले क्या कहेंगे...

तुमने यह भी कहा था
तुम्हारी हथेली में रेखाएँ हैं कम
मेरी हथेली में भी न जाने कितनी
रेखाएं हैं अधूरी..
मुझे मालूम था, वे रेखायें
मेरी हथेली की उन रेखाओं से
आकर नहीं मिलतीं..
मेरी मायूसियों को देख
तुम पिघल गई थी एक पल के लिए
जब तुम्हारी पलकों की कतारों में
उभर आए थे मोतियों के दो दाने ....
याद करो...
मैंने उन दानों को
सहेजा था अपनी ऊँगलियों के पोरों पर
कुछ देर यूँ ही देखता रहा था
गोल-गोल मोतियों को
और फिर बडे ही एहतियात के साथ
रख दिया था
शाख पर उभरे तेरे नाम के बीचोबीच
याद है न तुम्हें...


जानती हो ?
ठीक उसी जगह से ..
बिल्कुल तुम्हारे नाम के बीच से
निकल आई हैं डालियाँ....
कभी आकर देखना
उन डालियों की हरी भरी अनगिनत पत्तियाँ
और खिले पीले-पीले फूल भी...
उन फूलों को छूकर देखा मैंने
ऐसा लगा जैसे छूआ हो तुम्हें
तुम्हारे स्पर्श का अहसास होते ही
अपनी बाँहों में पेड को घेर लिया मैंने भी
ठीक वैसे ही
जैसे बरसों पहले तुमने किया था...

न जाने कितनी देर तक था मैं खडा
बाँहों में समेटे अमलतास के पेड को
मानो वह पेड नहीं, तुम थी
टप-टप माथे पर बरसते पीले फूल
यूँ लग रहे थे जैसे कोई
अक्षत फेंक दे रहा हो आशीष...

मुझे अब भी याद है
कैसे तुमने दुलराया था एक एक फूल
और एक एक पत्ते को
तितली बन कर...
मैंने फिर
पकडी एक तितली भी
जिसके कोमल पंखुडियों का आभास होते ही
हालाकि तुरंत ही छोड दिया था मैंने
पर उसके रंग मेरी ऊँगलियों में लगे रहे शाम तक
और खुशबू तुम्हारे बदन की
आती रही
रात भर...!!


कल की है बात


अभी कल की ही तो है बात
खिल उठे थे कई फूल
एक साथ
अचानक
दिल के सहरा में....
एक बादल सा उठा
घना हुआ
और घना
तबसे अब तक लगातार बरसता
तर कर गया
दिल का कोना कोना
क्या आसां है किसी के मन को यूँ छू लेना..

कल की ही है बात
जब हौले से
सात पर्दों और पाँच दीवारों
में छिपे मन को
उसने ढूँढ निकाला था..,
और इतने चुपके से
डाला था अपना डेरा
कि बंजर धरती का सीना चीर
फूटा था कोई बीज
फिर निकली पत्तियाँ
और बढती डालियाँ
फिर फूल ही फूल
हैरत कर गया मुझे
कि फिर जहाँ भी जाता हूँ
ये खुशबू साथ-साथ चलती है

सदियों की सूखी धरती की
बुझती नहीं प्यास
वह लगाए बैठी है आस
कि बादल यूँ ही बरसता रहे
और खिलते रहें फूल
बिखरती रहे सुगंध
हर एक दिशाओं में
बुनता रहूँ मैं यूँ ही ख्वाब
जिसमें हो केवल सीधी बुनाई
एक भी उलटी नहीं
ऊँगलियों की सलाई से
डालता रहूँ मैं फंदे
बिना गाँठ के
टाँकता रहूँ सितारे
और रोशनी की झालर
झाँके इसी झालर से
चाँद और सूरज
जगमगा उठे सारा जग
कि खोल डाली हैं खिडकियाँ भी उसने
झूठ है कि आसाँ नहीं मन को छूना
गर पास हो सादगी उसके जैसी
और मालूम हो रास्ता मन का...!!

Monday, August 1, 2011

जेल


जेल

उसे काल कोठरी कहा जाता था
वहाँ आजादी के दीवानों के
हाथ-पाँवों में होती थीं बेडियाँ  
वे जमीन पर सोते
मच्छरों और बिच्छुओं के बीच
अँधेरी, तंग कोठरी में
सबेरे के सूरज की प्रतीक्षा करते
बोरियों के सिले वस्त्र पहनते
कांजी पीते
कोडे खाते
फिर भी आजादी के गीत गाते
दीवारों पर ओजस्वी भाषण लिख देते
गीता रच देतेç
और एक दिन हँसते-हँसते
फाँसी पर झूल जाते
सेलुलर जेल की उस काल कोठरी को
हो सके तो देख लेना कभी एक बार
सच मानो,
होगा रोमांच
शरीर में उस पुण्य भूमि के स्पर्श से
सिहर उठोगे तुम..

और आज,
अरबों..खरबों का गबन करने वाले
बदकिस्मती से यदि पकडे जाते
और
रखे जाते जिस जेल में
वातानुकूलित कमरे नहीं होने की
होती है उन्हें शिकायत
घुट न जाए कहीं बंद कमरे में उनका दम
इसलिए सबेरे शाम
मिल जाती है टहलने की भी इजाजत 

ये अखबार पढते
किताबें मँगाते
टीवी भी देखते
चाय पीते, कॉफी पीते,
घर से आया भोजन करते
जेल से बाहर निकलने के लिए
महंगे वकील रखते
ये घूस लेने में पकडे जाते
और घूस देकर छूट जातेç

इस जेल को नेताओं, अफसरों और
सुविधा भोगियों का
कहा जाता है आराम स्थल
इसे कभी मत देखना
यकीन मानो
जिसका नाम सुनने पर ही होती है घुटन
उसे देखने पर आएगी मितली 

अक्सर सोचता हूँ मैंé
मेरे गुनाहों के लिए मुझे किस जेल में रखोगेç

मैं भी तो हूँ एक मुजरिम
मुझे भी मिलनी चाहिए सजा
मेरे संगीन अपराध के लिए
अपराध जो मैंने किया है
तुलना करने का

तीर्थों के तीर्थ सेलुलर जेल की
तिहाड, बेउर या अन्य जेलों सेç
आजादी के दीवानों की
आज के नेताओं से,
अफसरों और सुविधा-भोगियों सेç
इतना बडा गुनाह...?

इस तुलना की कडी से कडी सजा मुझे दोç
फाँसी से भी कडी
हो सके तो मुझे जिन्दा छोड दो
ताकि मुझे मरने का
हो हर पल अहसास
तिल तिल मरते रहने का अहसास
पल पल...हर पल