Thursday, March 26, 2015

मैं और मेरी तनहाई

(एक तज़मीन*) 

मैं और मेरी तनहाई
अक्सर ये बातें करते हैं

कि मौसम तबादले का आने ही वाला है
फिर ढूढूँगा मैं अपना कोई ठिकाना नया
किसी अजनबी शहर की अनजान गलियों में
फिर छूटेंगे कच्चे रंग कई चेहरों के  
और उभरेगी नई सूरतें ज़ेहन में    
फिर बदलेगा मेरा कमरा
किसी नए शहर या गाँव में
किसी दरबे की छत पर
बरसाती में
फिर चाँद झाँकेगा अक्सर खिडकियों से
और रातों की खामोश सदाएँ गूजेंगी  
फिर कटेगी तन्हा मेरी रातें
और करूँगा दीवारों से बातें
अपनापन होते ही उन दीवारों से
चल दूँगा फिर किसी अनजान रस्तों पर  
अगले मौसम में

मैं और मेरी तनहाई
अक्सर ये बातें करते हैं कि
सिलसिला त-आरुफ का लोगों से  
और रहना अजनबी ता-उम्र फिर भी 
ख़त्म होगा कभी तो एक दिन
तब हमारे दरम्यान कोई भी नहीं होगा
और मिलूँगा मैं अपने आप से
उस वक्त साथ होंगे सिर्फ हम दोनों
मैं और मेरी तनहाई...!!   

  
(तज़मीन : किसी और की शायरी लेकर आगे बढना, शामिल करना)   


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