Sunday, March 29, 2015

past perfect tense



बहुत देर में समझा था मैं
इशारे में कही तुम्हारी वह बात
कल सबेरे की ट्रेन से वापस चले जाना है तुम्हें फूफा के साथ

नलिनी ने बताया था बाद में,  
खिडकी पर बाँह टेक इधर उधर देखती रही थी तुम
स्टेशन पर बेचैन, अन्यमनस्क
बूँद उभर आई थी आँखों में
चल दी थी ट्रेन जब
बहाना बनाया था तुमने कुछ आँखों में पड जाने का

पहुँचा था जब मैं स्टेशन पर
सूना था प्लैटफॉर्म,
सुस्ता रहे थे खोंमचे वाले
बताया था व्हीलर बुक स्टॉल वाले ने 
ट्रेन आउटर सिग्नल पार कर रही होगी 

इक हूक सी उठी थी दिल में
प्लेटफॉर्म की टिकट लिए हुए ऊँगलियों की पोरों में 
चला आया था आख़िरी छोर पर
पार्सल घर तक
दिखी थी मुझे दूर मुडती हुई ट्रेन के
आख़िरी डिब्बे के पीले क्रॉस की एक झलक  

सच हो गया था वह जुमला
बचपन में जब अंग्रेजी कक्षा में
'टेंस' पढाते वक्त 
मास्टर देते थे वाक्य
ट्रांसलेशन बनाने को
“जब मैं स्टेशन पहुँचा गाडी छूट चुकी थी” 




Thursday, March 26, 2015

मैं और मेरी तनहाई

(एक तज़मीन*) 

मैं और मेरी तनहाई
अक्सर ये बातें करते हैं

कि मौसम तबादले का आने ही वाला है
फिर ढूढूँगा मैं अपना कोई ठिकाना नया
किसी अजनबी शहर की अनजान गलियों में
फिर छूटेंगे कच्चे रंग कई चेहरों के  
और उभरेगी नई सूरतें ज़ेहन में    
फिर बदलेगा मेरा कमरा
किसी नए शहर या गाँव में
किसी दरबे की छत पर
बरसाती में
फिर चाँद झाँकेगा अक्सर खिडकियों से
और रातों की खामोश सदाएँ गूजेंगी  
फिर कटेगी तन्हा मेरी रातें
और करूँगा दीवारों से बातें
अपनापन होते ही उन दीवारों से
चल दूँगा फिर किसी अनजान रस्तों पर  
अगले मौसम में

मैं और मेरी तनहाई
अक्सर ये बातें करते हैं कि
सिलसिला त-आरुफ का लोगों से  
और रहना अजनबी ता-उम्र फिर भी 
ख़त्म होगा कभी तो एक दिन
तब हमारे दरम्यान कोई भी नहीं होगा
और मिलूँगा मैं अपने आप से
उस वक्त साथ होंगे सिर्फ हम दोनों
मैं और मेरी तनहाई...!!   

  
(तज़मीन : किसी और की शायरी लेकर आगे बढना, शामिल करना)   


Sunday, March 22, 2015

सनसेट


देखा था झंझारपुर से आते वक्त
फोर लेन से गुज़रते हुए
हादसों की ज़द में बैठे हुए 
सूरज को कल शाम ... 

राह भूल गया था वह शायद 
क्षितिज से भटक कर आ गया था हाइवे पर 
बिल्कुल सडक के बीचो-बीच
सुस्ताता रहा यूँ ही सडक पर बैठे-बैठे कुछ देर   

गाडियों की तेज़ रफ्तार की चपेट में आ जाता
ऐन वक्त छुप गया पेडों के पीछे
हादसा एक 
होते-होते बचा


19.03.2015 

Saturday, March 21, 2015

ब्लॉटिंग पेपर


ग़मों की स्याही उडल जाती है
किसी दावात से हर दिन
डुबो-डुबो के लिखता हूँ कंडे की इक कलम से
हर रोज़ एक हर्फ़
अपनी ज़िन्दगी के कोरे काग़ज़ पर

सोचता हूँ बनेगा एक दिन
तिनका तिनका जुड कर उन हर्फ़ों से कोई गीत 
हर्फ़ जो बिखरे रहते हैं दिल के पन्नों पर
माएने की तलाश में

पर मुकम्मल होने के पहले ही
सोख लेता है स्याही 
मेरे दिल का ब्लॉटिंग पेपर

ये ग़मों की भीड कुछ दिन टिक जाती
तो पूरा हो जाता
मेरा कोई गीत
बेवज़ह वरक़ भी दिल की किताब का
उडता नहीं फज़ाओं में
बिखरे हर्फ़ लिए…!!     



Tuesday, March 17, 2015

चलो पूरा करें ख़्वाब अधूरे


2.
न जाने कैसे राह बनाते
बचते-बचाते
आ पहुँचा मेरी आँखों में
बचपन का वो भूला भटका ख़्वाब

मुझे देखते ही बोल उठा
‘ना’ ‘रोना मत’
बडी मुश्किल से मिली है पनाह तेरी आँखों में
बह न जाऊँ कहीं आँसुओं के सैलाब में
सँभाल कर रख लो मुझे
मूँद कर अपनी आँखें
के बन सकूँ हक़ीकत
तेरी पलकों की छाँव में
अभी भी देर नहीं हुई है ..!!   


अधूरा ख़्वाब


1.       
एक ख्वाब बचपन का
साथ चला था कुछ दूर ऊँगली थामे
बिछड गया दुनिया के मेले में
हाथ छूट गया था उसका रोज़ी-रोटी की भीड में
गुमशुदगी की रिपोर्ट भी दर्ज कराई थी उसकी 
एक खलिश सी छोड गया दिल में
बहुत याद आता है तनहाई में अक्सर  

साथ होता तो आज
कद उसका मुकम्मल हुआ होता..

जगजीत सिन्ह


तुम्हारी आवाज़ इक नज़्म की तरह   
रस घोलती है कानों में 
ठंढी हवा के झोंके से लगती है  
किसी झुलसती गर्मी में
तुम्हारी गज़लों की तान  
माएने इस तरह घुलते हैं रूह में गज़लों के
जैसे सोंधी खुशबू घुलती है फज़ाओं में धीरे धीरे
बारिश की पहली फुहार से
 
छन छन के टपकती तुम्हारी आवाज़ की बूँदों से 
कभी कभी ऐसा भी लगता है
जैसे तेज ताप से तपती देह पर
बर्फ की पट्टी रखी जा रही हो माथे पर
या कोई बीमार अच्छा महसूस करता है
जब छटपटाते बदन पर उभरे लाल-लाल चकत्ते पर उसके 
लगती हो चन्दन की लेप

अच्छा करने की तासीर रखती है
किसी बीमार को
तुम्हारी आवाज़
और तुम्हारी दिलकश ग़ज़लें ...!!    





Friday, March 13, 2015

तुम्हारी नज़्म


गुनगुना के मस्ती में जब भी छेडी है तुमने कोई नज़्म  
एक ही साथ दो-दो नज़्में सुनाई दी है मुझे
एक तुम्हारी आवाज़
जैसे किसी खामोश वादी में दूर
कोई पेडों की छाँव में बैठा छेड रहा हो बाँसुरी की तान 

और दूसरी उन नज़्मों में पिरोए हुए लफ्ज़ों के मायने  
जो पुरवाई हवा के ठंढे झोंके से लगे हैं मुझे
किसी झुलसती गर्मी में

मेरा वक्त यह तय करने में ही निकल जाता है
किसे सुनूँ
आवाज़ या नज़्म
किसे अच्छा कहूँ
नज़्म या आवाज़
दरअसल दोनों एक से लगे हैं मुझे
तुम्हारी आवाज़ की ही तरह कितना सुकूँ देता है
तुम्हारी नज़्मों के मायने भी...!!
   



वेटिंग रूम


वेटिंग रूम में बैठा हूँ
सामने ही स्वीच बोर्ड है
मची है होड मोबाइल चार्ज करने की 
एक ही सॉकेट में दो दो चार्जर के पैर घुसे हुए हैं
जैसे एक दूसरे के ऊपर लदे हुए
लोग चढे रहते हैं रेल के डब्बों में

लकडी के पार्टीशन से घिरा हुआ है एक कमरा
जिसके बाहर टेबुल कुर्सी लगाए
बैठा है ऊँघता हुआ एक आदमी
नींद में भी वसूल लेता है वह दो रुपए
जो भी उस कमरे से निकलता है उनसे

देख रहा हूँ आती जाती ट्रेनों को
घर से चला था तो मैच चल रहा था टीवी पर  
एक मैच सा यहाँ भी चलता मालूम हो रहा है
ट्वेंटी-ट्वेंटी का
कुल बीस ट्रेनें आती हैं रात में आसनसोल
रनें बनाती हैं ट्रेनें
एक जाती है तो दूसरी आ जाती है
कोई ज़ीरो पर आउट नहीं होती
अच्छे फॉर्म में हैं सभी
हर ट्रेन के बल्ले से  
रनों का अम्बार निकलता है
जब उगलती है वह लोगों का हुजूम 
प्लैटफॉर्म भी थकने का नाम नहीं लेता
गेंदे डालता रहता है ट्रेनों को 

सामने ही कोई ट्रेन रुकी है
रंगदारी वसूल रहे हैं आरपीएफ के जवान
भीड लगी है ‘मे आई हेल्प यू’ काउंटर पर  
बडे ही मनोयोग से आरक्षण चार्ट का अध्ययन कर रहे हैं टीटी बाबू 
मालूम है अनुभवी टीटी बाबू को कि    
कितने रन पर आउट होगा बर्थ की चाहत रखने वाला   
दरभंगा का वह नौजवान
जिसकी ऊँगलियों में लगे नेल पॉलिश और आलता से रंगे पैर
साफ बता रहे हैं कि
लौट रहा है वह पहली होली मना कर
अपनी ससुराल से
  
और आरपीएफ के जवानों को भी
कि उतरेंगी कहाँ
टॉयलेट में ठूँसी कोयले की बोरियाँ...

यह मैच जीत-हार के बिना खत्म हो जाएगा  
यह मैच ‘टाई’ होगा
फिक्स है यह मैच ..!!  
       

रेलवे प्लैटफॉर्म



1.       

रतजगा करता है
आसनसोल का प्लैटफॉर्म

रात आधी होने को आई पर  
चहल पहल है
जो थमने का नाम ही नहीं ले रही

अभी मैं जिस ट्रेन से उतरा
एक जन-सैलाब छूटा है उस ट्रेन से
भर गया चप्पा-चप्पा प्लैटफॉर्म का उस सैलाब से

इस सैलाब के कई हिस्से होंगे
कुछ को सोख लेगी दूसरी ट्रेनें  
कुछ यहीं बह जायेंगे
मेरे दुखों की तरह   

2.       

खोँमचे वाले बेच रहे हैं पूरी-सब्जी खिडकियों से
ताबडतोड बिक रहा है डिम और बिसलेरी बोतल 
जिसे उठाया गया है रेलवे ट्रैक से ही
और भरा गया है प्लैटफॉर्म पर ही

बन आयी है ‘तिरंगा’ और गुटखा बेचने वालों की
भर मुँह पीक रख पायदान पर खडे
सफर काट देने वाले यात्रियों के बीच

इसी हुजूम के बीच दौड रहे हैं
वेटिंग रूम में, सीढियों के नीचे, 
खाली रेलवे ट्रैक पर या खोँमचे वालों के ठीक बगल से
मुस्टंडे चूहे
निडर, निर्भीक, निरापद

परिन्दों की भी बदल गई है दिनचर्या
अब ये शाम ढले नहीं सोते
आधी रात होने को आई पर 
अफरा-तफरी मची हुई है इनके बीच भी   
प्लैटफॉर्म नम्बर तीन और चार की शेड पर जगह पाने के लिए   
शोर मचाते इन परिन्दों की बीट से 
पटा पडा है प्लैटफॉर्म की जमीन

देख रहा हूँ इक तमाशा जीवन का
हंगामा सा है
हडबडी है
सफर में तो सभी हैं   
पर मुसाफिर कोई नहीं दिखता..!!  


अंतहीन यात्रा



छुट्टियाँ बिता कर लौट रहा हूँ मैं
बदलना पडता है ट्रेन आसनसोल स्टेशन पर
जिस ट्रेन से मुझे जाना है वह देर रात आएगी सियालदह से 

वेटिंग रूम में बैठा गिन रहा हूँ आती-जाती ट्रेनों को
एक हुजूम उतरता है हर ट्रेन से
चढ जाता है एक और उतना ही 
न ट्रेन खाली होती है 
न प्लैटफॉर्म

सिलसिला रात भर चलेगा 
हिसाब बराबर करने का   
रात भर दौडेगी ट्रेनें अँधेरे में
पहुँच जाएगी फिर अपनी-अपनी मंजिल मुँह अँधेरे ही
सुबह की अलसायी नींद लेने के लिए अंतिम पडाव पर
कि फिर चलना होगा एक लम्बी दूरी
उसे भी और
मुझे भी
सूरज के सर चढते ही ...!!