Saturday, August 11, 2012

जन्मदिन पर


ज़िन्दगी की जमापूँजी में से
जैसे पचास बरस खर्च हुए
वैसे खिसक गए
दो चार और साल
और खडा रहा मैं
जहाँ के तहाँ
हासिल हुए सिर्फ कुछ सफेद बाल

ये ज़िन्दगी भी बडी अजीब शै है
आप चलें,
दौडें या रूके रहें
बीत जाती है यह
पर कर जाती है एक सवाल
और माँगती है जवाब....

मुझे याद नहीं कि
ये चार बरस मैंने खर्च किए
या चोरी चले गए
या राह चलते कहीं यूँ ही गिर गए
या किसी ने मुझसे छीन लिए ....

मैंने रक्खे नहीं हैं कोई हिसाब
इसलिए कैसे दूँ उसे जवाब...


Friday, August 10, 2012

तलाश


पिताजी मुझे आशीर्वाद दीजिए
मैं घर छोड कर जा रहा हूँ,
कहाँ?”
ढूंढने रिश्तों को
परिवार को
मोहल्ले को
समाज को
प्रांत को
फिर देश को...

वह देश
जहाँ नहीं हो किसी के दिल में द्वेष
वह प्रांत
जहाँ नहीं हो कोई भी क्लांत
वह समाज
जहाँ सबके लिए हो काम-काज
वह मोहल्ला
जहाँ व्यर्थ न हो हल्ला-गुल्ला
वह परिवार
जहाँ अतिथियों का हो सत्कार
वह रिश्ता
जिसमें हो प्यार और सहिष्णुता

पिता ने गहरी साँसें लीं
बरसों पहले वे भी निकले थे ढूँढने
यही सब
पर थक हार सब्र कर लिया था उन्होंने
आज फिर जगी एक आस
उन्होंने आशीर्वाद दिया
काश,
पूर्ण हो तुम्हारी तलाश..!!
******

Friday, July 6, 2012

याद है तुम्हें


याद है तुम्हें ?
पिछले जाडे के मौसम में
कैसा कहर बरपा था
खत्म हो गई थी
रज़ाई, कम्बल और गर्म कपडों
की तासीर..
अलाव तापते कटते थे दिन
और आहें भरते रातें
कोहरे को चीर कर जब
महीनों बाद सूरज देवता ने दर्शन दिए थे
तब जाकर खिले थे सबके चेहरे
याद है न तुम्हें ?

फिर गर्मी का मौसम आया था..
ऐसा लगा था जैसे उसने
जाडे के मौसम से होड ले ली हो
हम क्यों कम रहें?
चिलचिलाती धूप और तपिश ने
जीना मुहाल कर दिया
शोले बरसते थे आसमान से
और आग बरसती थी पंखों से
पसीने में नहाए हम
बरसात में नहाना चाहते थे
आषाढ बीत गया
किसानों की आँखें बादल
तकते-तकते धुँधिया गईं
पर मानसून चकमा देकर चलता बना
करीब दो महीने झुलसाने के बाद
कल सावन की पहली फुहारों ने
तपिश पर मरहम लगाया
याद है न तुम्हें गर्मी का कहर?

पर अब बरसात की बारी है
मुझे पक्का यकीं है कि
अबकी बारिश भी हमें रुलाएगी
कहीं गाँव दहेंगे
कहीं खेत बहेंगे
शहरों में नाव चलेगी
सडकों पर घुटनों भर पानी होगा
फिर पानी सर के ऊपर होगा
ज़िल्लत की ज़िन्दगी होगी
फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा
जैसे कुछ हुआ ही न हो
फिर तुम्हें कुछ भी याद न आएगा
और याद करोगे भी तो
विजयी भाव से यही कहोगे कि
मौसम के इन थपेडों को
हमने बिना शिकायत झेल लिया

जैसे तुम जाडे की ठिठुरन भूल जाते हो
जैसे तुम गर्मी की जलन भूल जाते हो
और जैसे तुम बरसात की फिसलन भूल जाते हो
वैसे ही तुम पिछली कडवी बातें और
ज़िल्लत के दिन
क्यों नहीं भूल पाते?

Friday, June 29, 2012

बात


बात बहुत पुरानी हो गई
इतनी पुरानी कि
याद नहीं कि क्या बात थी..
बस याद है
अभी मैं जिस दोराहे पर खडा हूँ
वहीं हम मिले थे कभी
वह उत्तर वाली सडक से आई थी
और मैं दक्षिण
हम मिले
बातें हुईं
फिर मिलने का सिलसिला निकला
बात से ही बात निकलती है
और बात से ही बात बढती है
बात निकली
फिर बात बढी
इतनी बढी कि
एक छोटी सी बात बडी हो गई
बात के बढने से
हमारे दरम्यान फासले बढे
कुछ उसने कहा
कुछ मैंने
मैंने अपनी सफाई में एक बात कही
उसने दो-चार
मैंने उसे खतावार ठहराया
उसने मुझे
बात खत्म करने के लिए
हमने रिश्ते खत्म करना मुनासिब समझा
आज इसी दोराहे पर खडा मैंने देखा
दोनों रास्तों से अलग
एक पगडंडी निकल आई है
शायद मेरी ही तरह किसी और ने
बात खत्म करने के लिए
तीसरा रास्ता चुना होगा
पगडंडी बना ली होगी
रिश्ते बचा लिए होंगे
मैं पगडंडियों पर चलने लगा
चलते-चलते दोराहे को देखता हूँ
वही रास्ते जिनपर अलग-अलग हम आए थे
और फिर जुदा हो गए
फिर सोचता हूँ
आखिर बात क्या थी
मुझे याद नहीं
सिर्फ इतना याद है
बात बहुत छोटी थी...

Friday, June 15, 2012

पाँच सितारा अस्पताल



वह अस्पताल अस्पताल नहीं
एक पाँच सितारा होटल था

जगमगाती लाइटें, चमचमाती फर्श
हर कदम पर सिक्यूरिटी और मुस्कुराती नर्स
एक मरीज पर एक अटेंडेंट से ज्यादा नहीं
मरीज के बारे में चिंता करने से कोई फायदा नहीँ
मरीज को करिए डॉक्टरों के हवाले
फिर कमरे में बैठ टी.वी. का मज़ा लें

एक दिन मेरी पत्नी यहाँ भर्ती थी
कई बीमारियाँ सुन हिल गई मेरी धरती थी
डॉक्टरों ने कहा, सर्जरी का केस है
जो भी हो, करना मुझे फेस है
कर दिया भर्ती उन्हें जान इतनी सस्ती न थी
फिर तीन दिनों तक एक कमरे में मेरी मस्ती रही
मिलने वाले भी यदा-कदा आते रहे
खाने की चीजें भी सिक्यूरिटी से छुपा लाते रहे
रूम सर्विस से भी मैं चीजें मँगाता रहा
जी भर कर चिकन तन्दूर भी खाता रहा
पत्नी को स्वस्थ कर उन्होंने घर जाने दिया
पर जाने के पहले मेरे हाथ में एक पुर्जा दिया
तीन दिनों का यह तीन लाख का बिल था
बिल देख कर हिल गया मेरा दिल था
कार्यालय ने कुछ भरपाई की वरना मैं कहाँ इस काबिल था
बाकी चुपचाप मैं सह गया यह मेरा ही दिल था



Thursday, June 14, 2012

ओवरब्रिज


मेरे घर के आगे जो रस्ता था
वह एक मोड से
रेलवे क्रॉसिंग की ओर मुड जाता था

वह मोड महज एक मोड न था
जहाँ से राहगीर रेलवे लाइन के उस पार जाते थे
वह मोड एक पडाव था
एक ठहराव था
उसी मोड पर ही तो वो गुलमोहर का पेड था
जिसकी शाखों पर अनगिनत
चिडियों के बसेरे थे
मोड की दूसरी तरफ ही वह घर था

न जाने कितनी बार उसी मोड पर
आते जाते मैं रुका हूँगा
उस वक्त
जब उस घर के दूसरे माले पर
एक दरीचा खुलता था
और कितनी गौरेया उस दरीचे
से उस घर में बेहिचक आती-जाती थीं
और मैं सोचा करता
काश!! मैं भी एक गौरेया होता.....

राहगीर रेलवे लाइन क्रॉस करने के लिए मोड से मुडते
मैं मोड पर रुका रहता
पेड के नीचे चिडियों की चहचहाट सुनता
देखता..
सामने वाले घर के उस माले से
एक खिडकी खुलती
एक अक्स उभरता
न जाने कितने लोग उस मोड से गुजरते
पर मेरे लिए उस मोड पर जिन्दगी ठहरी मिलती
मानो मोड ने ही मेरे पैर जकड लिए हों....
उस ठहराव में
कितना सुकून था
आराम था
ख्वाब थे
उम्मीद थी..

उम्र की रफ्तार में
एक दिन वह मोड गुम हो गया
रेलवे क्रॉसिंग के ऊपर से गुजरते हुए
एक ओवरब्रिज के कंक्रीट के मोटे-मोटे पाए में
और वह पेड भी

मोड के सामने वाला घर अब भी वहीं है
पर दूसरे माले की उस खिडकी के ठीक सामने से
गुजरता है
वह ओवरब्रिज
जिसपर दौडती फिरती हैं गाडियाँ और
रात के सन्नाटे को चीरती हैं लौरियाँ
पर अब गुम है वह मोड
वह पेड
और गौरेया

मोड के गुम होते ही
पेड के गुम होते ही
गौरैया के गुम होते ही
बन्द हैं अब खिडकियाँ ...
और मैं भी वक्त की रफ्तार में
ओवरब्रिज आनन-फानन पार कर लेता हूँ....

पर मुड जाती है मेरी गर्दन
उस बन्द खिडकी की तरफ
आते-जाते उस ओवरब्रिज से
मोड पर उस पुरसुकून ठहराव की याद में....!!

Sunday, June 10, 2012

समय समय का फेर..


जब मैं नाना के घर रहता था
तो रौनकें होती थीं घर में
न जाने कितने लोग आते थे,
रहते थे
रेला था
एक मेला था
मामा-मामी
छोटका नाना-नानी
मौसा-मौसी
भाई-बहने
मस्ती के थे क्या कहने
गाँव से आता तीमारदार
गर पडता कोई बीमार

दादा के घर भी
क्या खूब मजे थे
हमारे सपने वहीं तो सजे थे
चाचा-चाची
फूफा-फूफी
भाई-बहने
सुख-दुख थे मिल-जुल कर सहने
खेतों की पैदावार
घर लाते बंटाईदार...

अब मैं भी किसी का नाना हूँ
और किसी का दादा भी
फिर क्यूँ मैं इतना तन्हा हूँ
दीवारों को तकता हूँ
रस्ता देखा करता हूँ
बाट निहारा करता हूँ
आहें भरता रहता हूँ
मैं भी किसी का नाना हूँ
मैं भी किसी का दादा हूँ
फिर क्यूँ मैं इतना तन्हा हूँ ...???

रस्ता वही, मंजिल वही...राही बदल गए


बरसों बाद उस शहर में गया
जहाँ कभी बचपन गुजरा था,
देखा,
शहर वही,
गलियाँ वही
सडकों पर बहती
नालियाँ वही
गली के मुहाने पर लकडी का टांड वही
चापाकल वही
बर्तन-तसले की कतारें वही
मोहल्ले की भीड वही
बिजली का खम्भा वही
तारों का जाल वही,
लग्घी लगा कर पोल से खिंचा
घर की ओर तार वही.
शायद कभी बिजली आ जाए
की उम्मीद वही
घर के दालान में
बिछी खटिया वही
जेठ की दुपहरी में
देह उघारे, पंखा झलते लोग वही
शाम को चौक पर भीड वही,
पान की दूकान वही
जमघट वही,
भर मुँह पीक रख बतियाते और
मोहल्ले के सिनेमा हॉल
में पोस्टर देखते लोग वही
घर के अन्दर सीलन वही,
गुमसाइन महक वही
सब कुछ वही
केवल बदली है पीढी
लछुमन चौरसिया के पान की दुकान पर
चाचा की जगह
अब जाने लगा है मेरा चचेरा भाई और
लछुमन की जगह
ले ली है
उसके बेटे ने...!!

Saturday, June 9, 2012

क़िताबें


किताबें खरीद कर पढने के शौक का
बदलते वक्त के साथ यूँ चले जाना
जैसे
अपार्टमेंट में एकल परिवार से बुज़ुर्गों का चले जाना
या
किसी बंद कमरे में रोशनदान का न होना
 
किताबें जो पहले सजी होती थीं बुक शेल्फ में
क़ैद हैं अब कम्प्यूटर में
पीडीएफ फाइल में
ई-बुक के रूप में
या फिर पेन ड्राइव में....

आइ.पी या मेल के जरिए किताबों का
दोस्तों में आदान-प्रदान होता तो है
पर बंद किताबों में रखे सूखे हुए फूलों की खुशबू
जो बीस-पचीस साल बाद भी आँखें नम कर देती हैं
या किताबों के पहले पन्ने पर बाप-दादा की लिखावट
ढूँढती फिरती हैं अब निगाहें

माफ करना मेरे कम्प्यूटर भाई,
तुम्हें अपनी छाती पर रख मैं पढ नहीं सकता
और मेरे पेन ड्राइव भाई...
भले ही तुमने अपनी छोटी डिबिया में
महाभारत समेटने की क्षमता हासिल कर ली है, पर
वो भाई-बहनों और दोस्तों को जन्मदिन पर
किताबें तोहफे देना,
उनपर बडी तन्मयता से
ब्राउन पेपर या प्लास्टिक से
ज़िल्दें लगाना....
सोते वक्त लेटे-लेटे पढना
और पढते-पढते
अपनी छाती पर रख सो जाना
हथेलियों से दबी किताब को
माँ का
बडे ही जतन से
धीरे से निकाल लेना
और सबेरे आँख खुलने पर
किताब का सिरहाने पाना.....

किसी पन्ने को किसी की याद पर मोड देना
या कॉलेज में किसी से टकराने पर जानबू कर गिरा देना...
क्या इन अहसासों का सुख दे पाने की क्षमता तुमने हासिल की?
एम बी और जीबी के दायरे में सिमटे
तुमने दिमागी उपलब्धियाँ तो जरूर हासिल कीं
पर हृदय की भाषा
तुम क्या समझो
और दिल का धडकना
क्या जानो....!!





Wednesday, May 23, 2012

अज़ीज़ साहब की शान में


भुलाए न भूलेगा मुझे वो दिन
देखना इंडिया हैबिटैट सेंटर में
एक मुसव्विर का शाहकार
चित्र जैसे बोलते हों
और हो जाते हों साकार
कैनवास पर उकेरे अज़ीज के घोडे
इतने जीवंत कि मेरे मन को भी ले उडे
कहीं बनारस के घाट तो कहीं गोलकुंडा के किले
कभी अजंता की गुफा में या महाबलीपुरम चले
ताल-तलैयों में लिली के फूल या सुंदर कंवल
जैसे छिटकी चाँदनी में आसमां गाता ग़ज़ल

हर कृति अलफाज़ से परे थी
क्या ख़ूब रंगों की छटा थी
बादलों की ओट में छिपता चाँद
या फिर कहीं काली घटा थी
अब यही दिल में उठ रही हैं ख्वाहिशें
अल्लाह करे उन पर हों बरकतों की बारिशें !!
23.2.2011
(अज़ीज़ साहब विश्वविख्यात चित्रकार हैं जिनसे मिलने का सौभाग्य मुझे दिल्ली प्रवास के दौरान हुआ था)

तुम्हारे लिए, सुधा


ज़िन्दगी के सफर में
हम इतनी दूर तक आ पहुँचे
कई लमहे, खट्टी-मीठी यादें
भागते पेड और बिजली के खम्भों
की तरह पीछे छूट गए
पर कुछ यादें उन सितारों की तरह
जहाँ भी जाउँ साथ ही चलते हैं
और मुझसे कहते हैं
कि अब यह सफर
तन्हा नहीं कटता

ढूँढा करता है दिल मेरा
हर छोटी-मोटी चीजों के लिए तुम्हें
टूथ-ब्रश में पेस्ट लगाने से लेकर
नहाने जाते वक्त तौलिए और कपडे देने
और फिर ऑफिस जाते वक्त लंच देने से लेकर
रात सोने के पहले बिस्तर में मसहरी लगाने तक...
मेरे ख़याल करने की
तुम्हारी इन्हीं आदतों ने
हर वक्त तुम्हें
मेरी निगाह में महफूज़ रखा है

सुबह की चाय
ड्राइंग रूम में सोफे पर
साथ बैठ कर पीने
और ऑफिस से घर वापस आने पर
तुम्हें पास बिठाकर
गुफ्तगू करने की ख़्वाहिशों ने
हमेशा ही तुम्हे मेरे हमराह रखा है

तुम्हारे जन्मदिन पर
यही दुआ है कि
तुम जीती रहो
मेरे सफर के अंतिम पडाव तक
बन कर मेरी हमराह
फिर से हमारा हो साथ
कि कट जाए बाकी दिन
लिए एक दूजे का हाथ !!

Thursday, May 10, 2012

नेफ्थलीन की गोलियाँ



मदर्स डे पर कल
अम्मा का पुराना टीन का बक्सा खोला
एक पुरानी बनारसी साडी निकली
जिसके पाड में सोने की ज़री का काम था
एक वूलेन शॉल मिला
जिसमें अभी तक कीडे नहीं लगे थे
एक चाँदी की तश्तरी
फूल का एक लोटा
पूजा की एक थाली
जिसकी चमक उसके लगातार माँजे जाने की निशानी थी
सफेद तकिए के दो कवर,
उसपर की गई कढाई,
क्रोशिया की बिनाई वाली एक झालर
कुश और मूँज से बनाई गई
लाल, पीले और हरे चटक रंगों की एक डलिया

एक अलबम
काले पन्नों पर सटी
बाबूजी के युवावस्था से लेकर
हम सब के बडे होने तक की
श्याम-श्वेत तस्वीरें
एक तस्वीर में माँ की गोदी में
निश्चिंत सा पसरा गुलथुल सा
मेरा छोटा भाई और बगल में खडा मैं
एलिफैंट ब्रांड की दो-चार कापियाँ
उनमें लिखे महादेवी और टैगोर के गीत
एक डायरी
जिसमें उतारी
नवनीत, धर्मयुग या साप्ताहिक हिन्दुस्तान से
खूबसूरत नज़्में और शायरी,
इन सारी चीजों को बचाकर रखने
और मुझतक सौंप देने की जिम्मेदारी निभाती
बक्से की तह में पडी
दुबली हो चुकी
कई
नेफ्थलीन की गोलियाँ !!

अंतर्देशीय पत्र



एक पुराने बक्से की तह में
बिछे अख़बार के नीचे से निकला
एक
अंतर्देशीय पत्र

गुज़रे ज़माने की सोंधी खुशबू लिए
लिखने वाले की साहित्यिक रुचि का द्योतक
व्याकरण की शुद्धियाँ
कविताओं की पँक्तियाँ
शेरो-शायरी से भरा
एक
अंतर्देशीय पत्र

महात्मा गाँधी की तस्वीर वाला डाक टिकट
उस पर लगा गोल काला मुहर
चिट्ठी में एकाध जगह फैली स्याही
पिताजी का माँ के नाम लिखा
वह
अंतर्देशीय पत्र

बुज़ुर्गो के लिए चरण-स्पर्श
छोटों को प्यार
माँ के लिए मनुहार
अम्मा का ख़याल
पिता के सवाल
हाँ
वह अंतर्देशीय पत्र

वक्त के थपेडों में खोया हुआ
मोबाइल के एसएमएस की
शार्ट-कट की भाषा में
इलू, सीयू, टूयू सम्बोधनों में
अपना वजूद खोजता हुआ
बदरंग, मटमैले,
संदूक में बिछे अख़बार के नीचे से
कभी कभार
झाँक लेने वाला 
वह अंतर्देशीय पत्र !!

फाउंटेन पेन और रीफिल बॉल-प्वाइंट पेन


बुक शेल्फ में पडी सदियों पुरानी फाउंटेन पेन
मेज़ पर रखे पेन-स्टैंड में सजे
रंग-बिरंगे बॉल-प्वाइंट पेन से कहती है,
बहन...
आज तुम्हारा ज़माना है
पर कल मेरा ज़माना था
बीस-पचीस वर्ष ही हुए कि मैं पुरानी धरोहर की तरह
बतौर बाप-दादाओं की निशानियाँ
किसी सन्दूक में,
माँ-दादी के टिनही बक्से में
या बुक शेल्फ में किताबों की कतारों के पीछे
सहेज कर रख दी गई...
वक्त की रफ्तार में तुमने मुझे काफी पीछे छोड दिया
पर भूली-बिसरी यादों की धूल हटाने पर मुझे
आज भी याद है
जब प्रेमचंद की खुरदुरी ऊँगलियों ने मुझे बडे ही एहतियात से सँभाला था
और गोदान के पन्नों पर दौडाया था
मुझे यह भी याद है
जब गुरुदेव टैगोर ने मुझे स्नेहिल स्पर्श दिया
दिव्य प्रेम और समर्पण से उन्होंने मुझसे काग़ज़ों पर
मोतियों के दाने बिखराए और
गीतांजलि के छन्द लिखवाए...

न जाने कितने महानुभावों ने मुझसे साहित्य और विज्ञान
की उत्कृष्ट रचनाएँ करवाईं
जिनके विचार उनके ज़ेहन से होते हुए ऊँगलियों के रास्ते
मेरी निब पर अक्षर बनकर उभरते थे
और मैं सरपट काग़ज के उन पन्नों पर दौडती थी..
मुझे धुँधली-धुँधली याद अभी भी है कि
लोग मुझे उपहारस्वरूप दूसरों को दिया करते थे
महँगी भी हुआ करती थी मैं
एवर शार्प, पार्कर, और ब्लैक बर्ड नाम की मैं
दामादों को बतौर नज़राना दी जाती थी
उनकी शेरवानी या कोट की ऊपरी ज़ेब में
चमकती, इठलाती फिरती थी मैं
वियोग और विछोह के दिनों में
उनके प्रेम-पत्रों की मैं राजदार बनी
मुझे इस बात का फ़ख़्र है कि
बचपन में अपने पिता की मेज़ से उठा लेने के
ज़ुर्म में नेहरू की पिटाई का मैं कारण बनी थी...

पर अब यह सब गुज़रे ज़माने की बातें हैं
मुझमें प्राण-रस का संचार करने वाली
चेलपार्क’, ‘सुप्रा और सुलेखा भी सूख गई
कइयों की कमीज़ें ख़राब करने का इलज़ाम भी लगा उनपर
मैं अकेली क्या करती?
चुपचाप अतीत की यादों के सहारे जी रही हूँ
पर एक बात कहना चाहती हूँ बहन...
बुरा मत मानना..
जीने के लिए तुम्हें भी मधुर यादों को संजोना होगा
मैं यह मानती हूँ कि ज़ेल और सेलो से
तुममें निखार आया है
पर जब तुम्हें याद आएगा कि लोग तुम्हें
यूज एंड थ्रो भी कहते थे
तो क्या अच्छा लगेगा ?
एसएमएस के युग में लिखना भूल रहे लोग
न जाने कैसी-कैसी चीजों के लिए
तुम्हें आजकल व्यवहार में ला रहे हैं,
सुनकर हैरत होती है
कोई तुमसे अपनी पीठ खुजाता है
तो कोई कान
कोई पाज़ामे में नाडे घुसाने के लिए तुम्हें ढूँढता है
तो ट्रेनों में बंद पंखे घुमाने के भी काम आ रही हो तुम..
सोचो, कल जब तुम भी अतीत के गर्त में जाओगी
तो क्या इन्हीं यादों के सहारे जियोगी ?

Monday, February 20, 2012

ज़िन्दगी की शक्लें

मौत ने जब हल्की दस्तक दी
तो उसने जाना कि ज़िन्दगी क्या है

ऑपरेशन थियेटर में स्ट्रेचर पर लेटे
बडे-बडे संयंत्रों को देखते
जब उसने मास्क लगाए डॉक्टरों को देखा
तो उसे जिन्दगी आती दिखाई दी थी
हाथ पकडकर बिठाती इससे पहले
बेहोशी की सूई ने उसे सुला दिया
पानी चढते बोतलों से बूँद-बूँद टपकती जिन्दगी ने
दबे पाँव आकर मौत को चुनौती दी थी
आँख खुली तो उसने फिर उसे देखा
आई.वी. इंजेक्शन में
डॉक्टरों के राउन्ड में
नर्सों की सेवाओं में
लोगों के मिलने में
और उनकी दुआओं में
सिरहाने रखे ताबीज में
”गेट वेल सून” कार्ड में
और बायोप्सी की रिपोर्ट में....

गुलज़ार ने कितना सही कहा है कि
"जिन्दगी क्या है जानने के लिए
जिन्दा रहना बहुत जरूरी है"