किताबें खरीद कर पढने के शौक का
बदलते वक्त के साथ यूँ चले जाना
जैसे
अपार्टमेंट में एकल परिवार से बुज़ुर्गों का चले जाना
या
किसी बंद कमरे में रोशनदान का न होना
किताबें जो पहले सजी होती थीं बुक शेल्फ में
क़ैद हैं अब कम्प्यूटर में
पीडीएफ फाइल में
ई-बुक के रूप में
या फिर पेन ड्राइव में....
आइ.पी या मेल के जरिए किताबों का
दोस्तों में आदान-प्रदान होता तो है
पर बंद किताबों में रखे सूखे हुए फूलों की खुशबू
जो बीस-पचीस साल बाद भी आँखें नम कर देती हैं
या किताबों के पहले पन्ने पर बाप-दादा की लिखावट
ढूँढती फिरती हैं अब निगाहें
माफ करना मेरे कम्प्यूटर भाई,
तुम्हें अपनी छाती पर रख मैं पढ नहीं सकता
और मेरे पेन ड्राइव भाई...
भले ही तुमने अपनी छोटी डिबिया में
‘महाभारत’ समेटने की क्षमता हासिल कर ली है, पर
वो भाई-बहनों और दोस्तों को जन्मदिन पर
किताबें तोहफे देना,
उनपर बडी तन्मयता से
ब्राउन पेपर या प्लास्टिक से
ज़िल्दें लगाना....
सोते वक्त लेटे-लेटे पढना
और पढते-पढते
अपनी छाती पर रख सो जाना
हथेलियों से दबी किताब को
माँ का
बडे ही जतन से
धीरे से निकाल लेना
और सबेरे आँख खुलने पर
किताब का सिरहाने पाना.....
किसी पन्ने को किसी की याद पर मोड देना
या कॉलेज में किसी से टकराने पर जानबूझ कर गिरा देना...
क्या इन अहसासों का सुख दे पाने की क्षमता तुमने
हासिल की?
’एम बी और जीबी’ के दायरे में सिमटे
तुमने दिमागी उपलब्धियाँ तो जरूर हासिल कीं
पर हृदय की भाषा
तुम क्या समझो
और दिल का धडकना
क्या जानो....!!
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