बरसों बाद उस शहर में गया
जहाँ कभी बचपन गुजरा था,
देखा,
शहर वही,
गलियाँ वही
सडकों पर बहती
नालियाँ वही
गली के मुहाने पर लकडी का टांड वही
चापाकल वही
बर्तन-तसले की कतारें वही
मोहल्ले की भीड वही
बिजली का खम्भा वही
तारों का जाल वही,
लग्घी लगा कर पोल से खिंचा
घर की ओर तार वही.
’शायद कभी बिजली आ जाए’
की उम्मीद वही
घर के दालान में
बिछी खटिया वही
जेठ की दुपहरी में
देह उघारे, पंखा झलते लोग वही
शाम को चौक पर भीड वही,
पान की दूकान वही
जमघट वही,
भर मुँह पीक रख बतियाते और
मोहल्ले के सिनेमा हॉल
में पोस्टर देखते लोग वही
घर के अन्दर सीलन वही,
गुमसाइन महक वही
सब कुछ वही
केवल बदली है पीढी
लछुमन चौरसिया के पान की दुकान पर
चाचा की जगह
अब जाने लगा है मेरा चचेरा भाई और
लछुमन की जगह
ले ली है
उसके बेटे ने...!!
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