Thursday, April 21, 2016

MAYA ANGELOU

I know why the caged bird sings, ah me,
When his wing is bruised and his bosom sore,
When he beats his bars and would be free;
It is not a carol of joy or glee,
But a prayer that he sends from his heart's deep core,
But a plea, that upward to Heaven he flings –
I know why the caged bird sings.


माया एंजलो ने जब लिखा “ I know why caged bird sings”  तो उन्होंने सोचा ना होगा कि उनकी अभिव्यक्ति दासता की जंजीर में जकड़े हजारों-लाखों व्यक्तियों को जीने की प्रेरणा देगी. दासता के कई रूप होते हैं. किसी अन्य देश की अधीनता, तो कहीं युद्ध की विभीषिका. कहीं रंग भेद, तो कहीं जातिभेद. सूक्ष्म रूप में मानसिक और दैहिक शोषण भी. दासता सिर्फ दिखाई देने वाली गुलामी नहीं है. माया ने इन सभी यंत्रणाओं को झेला है. भोगा है. यहाँ तक कि बलात्कार की भी शिकार हुईं. बलात्कार भी माँ के प्रेमी ने किया जिसकी बाद में माया के चाचा ने हत्या कर दी. इन सब वाक्या से उन्हें इतना सदमा लगा कि वे कुछ सालों के लिए बिल्कुल खामोश हो गईं. पारिवारिक टूटन, द्वितीय विश्व युद्ध, रंग भेद, कैबरे डांस में लोगों की गंदी निगाहें और ना जाने क्या-क्या? ओफ...माया ! काश तुम्हारे दर्द का दशांश भी हमने साझा किया होता. पर यदि ऐसा होता तो क्या हम झेल पाते...कविता लिख पाते, अपनी आत्मकथा लिखने का साहस जुटा पाते, दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बन पाते.  नहीं, हम तो पागल हो जाते, आत्म हत्या कर लेते. पर तुमने खामोशी में अपनी अंतरात्मा को जीवित रखा. बंद पिंजड़े में चहचहाते पंछी को देखा और कलम उठा ली. फिर जो लिखा तो आत्मवेदना अंत:प्रेरणा बन गई. जब वे कहती हैं “मैं उठती हूँ” तो एक अनजान प्रेरणा शक्ति हमें भी उठाती है. भय और आतंक की रातें पीछे छूट जाती हैं, पुरानी शर्मनाक और दर्दनाक बातें जिसकी जड़ें दर्द से सींची गई है, अतीत का हिस्सा बन जाती हैं. उस अतीत से ऊपर उठते ही एक उम्मीद सी जगती है. आत्मसम्मान पैदा होता है कि अब कोई टूटा हुआ देखना भी चाहे, जिसका सिर झुका हुआ हो, नजरें झुकी हों, कंधे नीचे गिरे हों और बेवजह आँखें डबडबाई हों तो अब यह सम्भव नहीं. क्योंकि अब मैंने हँसना सीख लिया है भले ही यह तुम्हें हेकड़ी लगती हो और तुम्हें चोट पहुँचाती हो. वाह...माया...वाह!! तुम्हें सलाम.

“काम करती स्त्री” कविता को भी मैं प्रेरणादायी कविता ही मानूँगा. एक स्त्री ना जाने कितना काम करती है, बिना किसी सहयोग के. अपना कहने के लिए उसके पास प्रकृति के सिवा कोई नहीं. पर प्रकृति के शीतल एवं स्नेहिल स्पर्श से वह बच्चों और बीमार की देखभाल से लेकर पूरे कुनबे को खाना खिलाने तक का काम कर लेती है. दरअसल अपना एकाकीपन वह प्रकृति से एकाकार हो कर दूर करती है.

“वे घर गए” कविता से एक अजब पीड़ा का बोध होता है. स्त्रियों के
शोषण की पीड़ा, उन्हें इस्तेमाल कर छोड़ देने की पीड़ा. यह पीड़ा दिल के गहरे तक टीस दे रही है.

आदरणीय श्री मणिमोहन जी का अनुवाद इतना प्रभावी है जैसे 
माया एंजलो ने खुद ही हिंदी में ये कविताएँ लिखी हों. अनुवाद कहीं नहीं प्रतीत होता. कविता की आत्मा के साथ उन्होंने पूर्णत: न्याय किया है. वैसे भी भावना समझ लेने पर भाषा की महत्ता गौण हो जाती है. उन्हें कोटिश: बधाई और विनम्र प्रणाम. 
शांडिल्य जी एवं सुश्री सुमन जी को इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.


Sunday, April 3, 2016

आसमान की चादर


सोचता हूँ,
बेख़बर नींद में

गर आसमान की चादर तन से हट जाए तो ...!!

Saturday, March 26, 2016

ख़्वाबों की दुनिया

चलो ख़्वाबों की दुनिया में चलें
आसमान की सैर करें
बादलों की ओट में लुका छिपी खेलें
किरणों के सिरे पकड़ रस्सी कूदें
बारिशों के छींटें मारें
बादलों ने जमा कर रखे हैं जो पानी
उसमें छपाक छपाक तैरें
धनक पर गीले कपड़े सुखाएँ   
रात होते ही आसमान की चादर ओढ़ 
सो जाएँ हम

ज़मीं पर
सबेरे से ही जद्दोज़हद के आलम में
बड़ी बेचैन कटती हैं रातें..!!


Friday, March 25, 2016

रिश्ता मेरा


रिश्ता मेरा नाज़ुक धागा
इन धागों में पड़ी हैं गाँठें
ये धागे अब टूटे सो तब टूटे

रिश्ता मेरा कच्ची टहनी
रख कर पाँव चढ़ूँ जो ऊपर  
ये टहनी अब टूटे सो तब टूटे 

रिश्ता मेरा छोटी नैया
यह नैया मँझधार में डोले
ये नैया अब डूबे सो तब डूबे  

रिश्ता मेरा नट की रस्सी
इस रस्सी पर खेल दिखाते
पाँव मेरे अब फिसले सो तब फिसले

रिश्ता मेरा चाकू की धार
चाकू से भी तेज़ जुबाँ है 
सर मेरा अब रेते सो तब रेते 

रिश्ता मेरा आश्विन की धूप
इस गर्मी में नहीं है पानी
चमड़ी मेरी अब सूखे सो तब सूखे

रिश्ता मेरा काग़ज़ का पुर्ज़ा  
इस पुर्ज़े पर प्यार की बातें 
बूँद पड़े अब घुले सो तब घुले 

रिश्ता मेरा आदमकद शीशा  
पत्थर बीच रखा यह शीशा  
यह शीशा अब चनके सो तब चनके

रिश्ता मेरा जैसे पिंजड़ा 
इस पिंजड़े में फड़फड़ पंछी
यह पंछी अब उड़े सो तब उड़े    

(होली/24.03.2016)

Monday, March 21, 2016

दिसम्बर का महीना


दिसम्बर के महीने में
बच्चों से बातें करने का एक विषय मिल जाता है
ठंढ बढ़ रही है
अपना ख़याल रखना
अलग अलग शहरों का तापमान हर रोज़ गिर रहा है
दिल्ली शीतलहर की चपेट में
लिहाफ में रहना  
वरना पिछले कुछ महीने तक
कैसे हो’,
क्या हाल है’,
खाना खाया 
कह कर
और अच्छा हूँ’,
काम कर रहा हूँ’,
भूख लगेगी तो खा ही लूँगा
सुन कर ही

फोन रखना पड़ता था...!! 

सूक्ति


कभी कभी जाने अनजाने हम ऐसा कुछ कह जाते हैं
दिल पर गहरा बोझ लिए फिर जीवन भर पछताते हैं

बत्तीस दाँतों के पहरे में भी जीभ फिसल ही जाती है 
धनुष से छूटे बाण कहाँ,  फिर वापस आ पाते हैं

कोई गलती एक बार हुई हो तो यह बात अलग है
ठोकर खा कर भी हम क्यूँ उस गलती को दोहराते हैं

हर ज़ख़्मों में सबसे गहरा ज़ख़्म है कड़वी बातों का
लाख लगाओ मरहम फिर भी दाग़ कहाँ धुल पाते हैं


बतरस


आओ बात छीलें
घनी आबादी के इस जनअरण्य में
पेड़ उगे हैं कई बातों के
आओ, किसी एक मसले का पेड़ चुन लें 
उसे उखाड़ें 
आरा मशीन पर चढ़ाएँ 
काटें,
फिर छीलें
छीलते जाएँ
थक जाएँ तो छोड़ दें
फिर चुन लें कोई नया पेड़ 
उस जंगल से
छाँटें,
उस पर रैंदा चलाएँ
छीलें,
लगे रहें हम इस रोज़गार में
अच्छा 'एंगेजमेंट' है यह 

बात कोई काठ नहीं
जो हो जाए चिकनी
आओ न..
कोई बात चुनें
छीलें...!!


(आजकल टी.वी. पर चल रहे निरर्थक मुद्दों जैसे देशभक्ति, भारत माता की जय बोलना इत्यादि पर आ रही निरंतर बहस से प्रभावित यह कविता)

Tuesday, March 8, 2016

नारी

1.
नारी तुम चेतना हो
करुणा हो, प्रेरणा हो
कल्पना हो, अल्पना हो
पूजा और अर्चना हो

वनिता हो, ममता हो,
त्याग की प्रतिमूर्ति हो
गहन सहनशीलता
यश और कीर्ति हो

जननी हो, पालक हो
सबकी संरक्षक हो,
रहस्यमयी माया हो
सौंदर्य की काया हो

घर और परिवार हो,
सुसंस्कृत समाज हो
सुंदर भविष्य और
प्रगतिशील आज हो  

ज्ञान की देवी हो,
सुख और समृद्धि हो
कुल की मर्यादा हो
सम्पदा की वृद्धि हो

जीवन-संजीवन हो,
हृदय का स्पंदन हो  
विजयी भाल पर चंदन
और अभिनंदन हो

शांति सौहार्द्र हो
उत्साह और उमंग हो
संग जो हो तुम्हारा,
जीवन सतरंग हो

रुप हो रंग हो और
गुणों की खान हो
सादगी जहाँ सुंदरता  
कवियों की बखान हो

स्वतंत्रता की परिभाषा
किंतु मर्यादा हो
सभ्यता का प्रतीक
और निडर निर्भीक हो

सौम्या हो स्नेहिल हो
प्रेम की धारा हो
स्पर्शमात्र से तुम्हारे
सुधा, जल खारा हो

गति हो प्रगति हो
रति और सुमति हो
तुमसे ही पूर्णता
और सदगति हो  

भाव हो नृत्य हो
गीत और संगीत हो
माधुर्य से ओत-प्रोत
जीवन का मीत हो

पुरुषों की साँस हो
जीने की आस हो
गृहस्थ आश्रम में ही 
योग और सन्यास हो

वंदना सम्वेदना
मान और सम्मान हो
आन हो बान हो
तुम ही तो प्राण हो


2.

(नारी का एक रूप यह  भी)
कितना उपवास रखती हो तुम
आज शनिवार है
सुंदर कांड का पाठ करोगी तुम
क्या कहा, मेरे लिए?
और वृहस्पतिवार को साईं बाबा का व्रत?
वो तो बेटे की सफलता के लिए
ठीक है, फिर रविवार को यज्ञ-हवन क्यों?
बेटी के लिए... एक पंडित ने कहा था
बहुत हो गया,
मंगल को हनुमान मंदिर जाना जरूरी है क्या ?
हाँ, निरोग काया रहे, शक्ति और भक्ति रहे इसलिए
तो बुध को गणपति क्यों
बुद्धि के लिए
फिर सोम को तो कुछ आराम करो,
शंकर को जल चढ़ाना क्यूँ
आप खुश रहें इसलिए
चलो, हटो..मैं तो खुश हूँ 
सबको उनके हाल पर छोड़ो 
अपने लिए भी कुछ जियो 

अपने लिए ही तो मैं जी रही हूँ
ये व्रत-उपवास कर रही हूँ
बच्चे और आप ही तो हैं
मेरे अपने
सिर्फ मेरे अपने..!!  



Sunday, February 14, 2016

हनुमनथप्पा की याद में

माँ यह कैसा शोर है
सोने नहीं देता मुझे चैन से
दफ़्न हो कर भी

सियाचीन में बर्फ़ में जब दबा हुआ था मैं
मुझे तेरी बहुत याद आई थी
याद आए थे मेरे कई साथी भी
जो मुझसे कुछ दूरी पर ही दबे पडे थे  
मुझे नहीं पता कि उनमें कितनों ने
दम तोडा था मुझसे पहले
ठंढ से काठ हो चुकी थी साँसे सबकी
पर फख़्र है हमें इस बात का
कि तेरी हिफाजत में कोई कसर नहीं छोडी थी हमने   

साँसे तो मेरी भी उखडने को बेताब थीं
पर तेरी हथेलियों की गर्माहट
अपने गालों पर महसूस कर
सुनता रहा था तेरे दिल की धडकन  
थाम रखा था तेरी आस और सबकी दुआओं ने
मुझे कई दिनों तक

बर्फ़ की चादर हटा निकल गई जब रूह मेरी  
क्यों नहीं मिल रही पनाह मुझे
कह दो इन सरफिरों से
इतना शोर न करें  
बोलने की आज़ादी के नाम पर 
कितना बोलते हैं सब 

माँ, तेरी हिफाज़त की चिंता अब
खाए जा रही है मुझे  
शोर ये थमे 
के नींद आए मुझे..!!   


Thursday, February 11, 2016

निदा फाज़ली और जगजीत सिन्ह




बहुत तन्हा था जब वह 
तुमने उसके दुख को गीत में बदला था,

'तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे, महफिल महफिल गायेंगे
जब तक आँसू पास रहेंगे, तब तक गीत सुनायेंगे'  
  
पुत्र वियोग में जब उसकी दुनिया उजडी थी
उसका दर्द रच-बस गया तुम्हारी रूह की गहराई में
तभी तो तुमने उसके लिए लिखा,

“अब खुशी है ना कोई दर्द रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला”

इससे पहले वह दर्द के अँधियारे में खो जाता
तुम्हारी इन पंक्तियों ने उसे राहत बक्शी थी,

एक मुसाफिर के सफर जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में तो कोई देर से जाने वाला”  

जब चीत्कार करने को जी चाहा था उसका
तब भी तुमने उसका साथ दिया और लिखा,

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता.”

दर्द बढ कर फुग़ाँ हो जाने से पहले
तुमने उसे जीने का सलीका सिखाया और सलाह दी,

“अपना ग़म ले के कहीं और ना जाया जाए
घर की बिखरी हुई चीजों को सजाया जाए”

उसके आँसू तुम्हारी कलम से हर्फ़ बन 
काग़ज़ पर बहे और  
तुम्हारे अलफाज़ को आवाज़ दे
सहलाता रहा वह अपने दर्द सारी उम्र 
तुम्हारे इन्हीं अलफाज़ों ने
नए माएने दिए उसकी गज़लों को
अब आज उसके जन्म दिन पर दोस्ती निभाते
जब तुम भी रुख़सत हो चले
तो तुम्हारी ही लिखी पंक्तियाँ तुम्हें कहता हूँ,

“उसको रुख़सत तो किया मुझे मालूम ना था
सारा घर ले गया, घर छोड कर जाने वाला”
 08.02.2016


Sunday, January 31, 2016

मौका


जब भी तुम कहती हो कि
कुदरत से मिलते हैं हमे बस तीन ही मौके
मै ख़्यालों में डूब जाता हूँ उदास होके

तुमने कहा था इतिहास के पन्ने उलट के देखो
जो सफल नही हुए हैं तीन मौकों में
ज़िंदगी की दौड से निकल जाते हैं बाहर

मुझे भी मिले थे तीन मौके
इजहार करने के लिए अपने दिल की बात
जब पहली बार मिली थी तुम
देर तक खामोशी छाई रही माहौल में  
और यूँ ही उठ कर चल दिए थे हम
फिर उस दिन सिनेमा हॉल के पीछे
कार पार्किंग मे अचानक ही भेंट हुई थी तुमसे
जब ठीक तुम्हारी कार की बगल मे
अनजाने ही अपनी कार पार्क कर दी थी मैंने 
इस संयोग पर भी मेरे होंठ सिले ही रहे
घर जाने के वक्त पेडों की झुरमुट से झाँकते चाँद को देखकर
तुमने पूछा भी था,
क्या पूरनमासी है, तभी तो पूरे चाँद की रात है
और मैंने तवज्जो नहीं दी थी  

मुझे पश्चाताप है अपनी चुप्पी का, अपनी बेरुख़ी का
मुझे दुख है अपने गँवाए हुए इन मौको का   
पर क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि
यह महज संयोग नहीं बल्कि है किस्मत का कोई लेखा जोखा
जो बार बार मै उन्हीं रास्तों से गुजरता हूँ
जहाँ से राहें तुम तक पहुँचती हैं

फिर क्यों ना मैं लगा रहूँ अपने प्रयासों में
गर छोड दूँ मैं कोशिशें तुम्हारे इतिहास के गवाहों से
फिर किंग ब्रुस की कहानी का क्या होगा
जिसने पाई सफलता सातवीं बार में
जब देखा मकडे को उसने
गिरते और उठते बार-बार
इक जाल बुनने में
एडीसन ने भी गर तीन बार में ही हार मान ली होती
तो राते रौशन नहीं होतीं हमारी बल्बों से

अब देखो न...
परीक्षाओं में भी मिलने लगे हैं पाँच-छ: मौके
मुझे भी दे दो एक और मौका
के खोल सकूँ सारी गिरहें अपने दिल की

हाँ, यह अलग बात है कि
कई प्रयासों के बाद जब मैं तुमसे मिलूँ
बदल जायेंगे कुछ माएने ज़िंदगी के
बहुत मुमकिन है 
तब हो जाए बेमानी 
बातें जिस्मानी …!!