Thursday, December 15, 2011

हवा की सरहद


यह ठीक है कि मेरी कोई सरहद नहीं
गाँव नहीं
शहर नहीं
मुल्क नहीं, वतन नहीं
पर कोई पूछे मुझसे तो मैं कहूँ
कि गाँव ही है मुझे पसन्द
गाँव की मिट्टी की खुशबू
जब मुझमें घुलती है
तो बिखेरती हूँ मैं सुगंध
इसीलिए गाँव ही है मुझे पसन्द....



अमराइयों से गुजरते हुए
खेतों से मचलते हुए
लहलहाते बालियों को चूमते हुए
कृषकों को उमगाते हुए
गृहणियों को उकसाते हुए
बहती हूँ मैं मंद-मंद
गाँव ही है मुझे पसन्द..


खुशबू सी घुलती है
धूप भी मीठी लगती है
लगते हैं पेडों पर झूले
मिलते हैं भटके औभूले
निकलती हैं लटाइयाँ
माँझे होते हैं धागे
उडती हैं पतंग
गाँव ही है मुझे पसंद


ये काटा...लो...वो काटा
आपस में सुख-दुख को बाँटा
कटी पतंग तो दौडे बच्चे
जिनके मन होते हैं सच्चे
उनकी मस्ती मुझे लुभाती
इधर-उधर उन्हें खूब नचाती
हिचकोले खा बच्चे भागे
आधे नंग-धडंग
इसीलिए गाँव है मुझे पसन्द....


तुम्हारे शहर में ?
तुम्हारे शहर में कहाँ मुझको मिलती
वो आशा की ज्योति वो बच्चों की मस्ती
तुम्हारे शहर में तो खबरें हैं दंगे-फसाद के
बडे क्या, बच्चों के मन भी भरे अवसाद से
करें सब शोर-शराबा
कहीं पर खून खराबा
अपना दामन बचाते
नाम मेरा लगाते
सब यही कहते फिरते
यह उल्टी हवा है,
यह कैसी हवा है?’’

वादा

उससे मेरा वादा हँसते रहने का
लाख बलाएँ हों अब सब-कुछ सहने का

पथरीली राहें हों या हों दुर्गम घाटी
याद उसे कर अब बस चलते रहने का

जबसे मेरी बाँहों को उसने थामा है
अब और नहीं मुझको कुछ कहने-सुनने का

आँखों से ही कह देती है सब बातें
मुँह से नहीं जरूरी है कुछ कहने का

उसका जब भी क़ासिद कोई ख़त लाए
छत पर धूप में जाकर पढते रहने का

उसकी याद में कट जायेंगे बाकी ये दिन
खौफ नहीं मुझको अब तन्हा रहने का

इंसान के अनगिनत चेहरे


आदमी के न जाने कितने रूपों से
रोज़ होता है मेरा सामना
रूप विद्रूप इन चेहरों से
अक्सर रहता हूँ मैं अनमना

कोई विपन्न मिलते तो कई धनी
कोई वंचित तो कोई बेहद गुनी
कोई उच्च पदासीन तो कोई बेरोजगार
कोई खुशहाल तो मिलते कई बेहाल

कोई लम्बा तो किसी का नाटा कद
कोई काला तो कोई गोरा बेहद
कोई शांत चित्त तो कोई वाचाल
कोई रूप धर लेता विकराल

मंडराते रहते इर्द-गिर्द वे मेरे
द्वेष, घृणा, ईर्ष्या से मन भरे
कैसे बिठाऊँ इनसे मैं सामंजस्य
काश सुलझ जाए कभी यह रहस्य

होकर एक दिन मैं बेहद परेशान
चुपचाप देखने लगा आसमान
देखते ही देखते  बादलों ने रंग बदले
देखा न था यहाँ दृश्य कभी पहले

तभी चहचहाते पंक्षियों का एक झुंड
उड चला जंगलों की ओर
भूल गई पलकें झपकना
मन हुआ मेरा विभोर

जंगलों से मुझे फिर याद आया
अनगिनत पेडों से फैला था साया
खूबसूरत रंगों की छटा थी चारों तरफ
दूर पहाडी की चोटी पर चमकती थी बरफý

फिर पडी खेतों पर मेरी जो नज़र
दूर तक देखी लहलहाती फसल
बागीचे में भी रंग बिरंगे फूल थे
कुछ लाल-पीले और कुछ थे हरे

एक ही खेत में अनगिनत थी सब्जियाँ
अनगिनत फल-फूल और रंग-बिरंगी तितलियाँÝ
मैंने देखे कहीं पर फूल कहीं पर काँटे
ईश्वर ने इसी तरह सुख-दुख भी बाँटे

इंसान भी है प्रकृति का ही एक हिस्सा
उसका भी है एक सुन्दर सा किस्सा
वह भी कुदरत का एक खूबसूरत रंग है
प्रकृति का अविच्छिन्न और अभिन्न अंग है

विविधता जब ईश्वर को है पसन्द
मैं करूँ कैसे उसे फिर नापसन्द
इंसान की इंसान से जब हो मोहब्बत
तब कहीं होगी ईश्वर की इबादत


राम के सान्निध्य की प्रार्थना


प्रार्थना
(1)
संसार में आते ही
मुखरित हुई थी सबसे पहले वाणी ही

कितना आश्चर्य
कितनी पीडा
कितना संशय
कितनी छ्टपटाहट
और बेचैनी से हमने रो रोकर कहा .
केहाँ...केहाँ,,,, अर्थात कहाँ...कहाँ..

काश,
गर्भनाल से कटने के बाद
उच्चरित होता तुम्हारा नाम
फिर हो जाता हमारा यह सफर
कितना आसान

भवसागर में तैरते, उपलाते  
रामसेतु के पत्थर की तरह
तुम्हारे नाम से हम ...
पार होते, औरों को भी कराते
हँसते हुए आते, हँसते हुए जाते
टूटने पर डाली से किसी पत्ते की तरह
पीडा न होती
हो जाता बराबर टूटना और जुडना तब

खैर,
देर नहीं हुई है अब भी
जाते वक्त कम से कम
निकले मुख से तेरा नाम
ऐसा ही वर दो
हमको हे राम !

(2)

सान्निध्य
मालूम होता गर तुम्हें
तुम्हारा साथ नहीं रहने पर
कितना गुमराह हुए हैं हम
तो शायद
अलग न करते
अपने से
कभी यूँ

हाथ-पाँव मारे हमने
कुछ पाया
कुछ खोया
खोया तो किस्मत को दोषी माना
पाया तो अपनी काबलियत समझी
जो भी पाया
गुमान हुआ हमें
पाने का गुमान
कुछ करने का गुमान
फूल गए हम कर्ता भाव से
समझने लगे खुद को
सर्वशक्तिमान
विद्या प्राप्त की तो
ज्ञान का मद हुआ
भक्ति की तो उपदेशक बन गया
धनार्जन किया तो धन के मद में चूर हुआ
शक्ति प्राप्त की तो मदान्ध हो गया

तुम साथ रहते तो कभी न होता ऐसा
तुम्हारे सान्निध्य में
हमारा मद
दम में बदल जाता
मद में आदमी होता है मदान्ध
पर दम में दमदार
दम हमें सिखाता दमित करना
अपने अहं को, अपने मैं को
तभी तो दम है शक्ति
जिसने दमित करना सीखा
वही हुआ ज्ञानी और शक्तिवान 

Wednesday, November 30, 2011

गौरैया


रोज सबेरे देखता हूँ मैं
आती
एक
गौरैया मेरे घर के उस कमरे में
जहाँ खिडकी के पास ही
है एक बेसिन
और बेसिन के ऊपर लगा
एक आइना
देर तक उडती फिरती है
आइने के सामने
देखती है अपना ही चेहरा
हैरत करती
चोंच मारती
ठक-ठक की आवाज
से ही हमारी नींद खुलती
हम झटपट उठते
यह दृश्य देखते
वह गौरैया
शीशे पर करती लगातार चोटें
पर उसे कुछ न हासिल होता
फिर वह मायूस हो लौट जाती

हम सोचते,
वह क्या सोचती होगी
मैं कहता,
वह उसे अपना प्रतिद्वन्द्वी समझकर
चोंच मारती होगी
पत्नी कहती,
नहीं,
उसे लगता
है कोई उसका बिछडा साथी
जिससे मिलने को है वह आतुर
भाई कहता,
शायद अपने प्रतिबिम्ब की
हरकतों का लेती हो वह बदला
ताउ कहते,
कहीं ऐसा तो नहीं कि
वह हो आइने से ही खफा
ताई कहती,
जरूर वह जलती होगी
अपने से सुन्दर शीशे में
दूसरी गौरैया देखकर..
एक दिन हो गई यह चर्चा खत्म
जब मेरी नन्ही बिटिया ने कहा,
यह गौरैया खेल रही
एक नया खेल
शीशे के अन्दर के
अपने एक नए साथी के साथ
वैसा खेल जो वह अपने दोस्तों के साथ
नहीं खेल पाती
और फिर मेरे सात साल के बेटे ने कहा,
इस गौरैया को
होती है छटपटाहट
अपने बच्चे को खिला न पाने की
उसका बच्चा
कैद है जो शीशे के अन्दर
फोड देना चाहती है वह
शीशे को
अपनी चोंच के निरंतर प्रहार से
डालना चाहती है उसके मुँह में
निर्द्वन्द्व...
अपनी चोंच में लाया हुआ
बहुत दूर से
अनाज का एक दाना
या कोई कीट-पतंग..
यह गौरैया
एक माँ है...




Wednesday, September 28, 2011

दादाजी की हवेली और बडकी चाची


दादाजी की हवेली
जिसमें थे भंडारघर, कुलदेवता का घर और
बारह कमरे
रहती जिसमें चाची,फुआ,दादी
छोटका बाबा, फूफा, बाबूजी-माँ
और भाई चचेरे

रेडियो वाला कमरा दादाजी का
और एक कोने में चौका
दूसरे कोने में सीढीघर
सीढीघर से सटे शौचालय और
उससे सटे स्नान-घर
बारी-बारी जाते सब
जिसको मिलता जैसा मौका

बीच में आँगन
और आँगन में था एक तुलसी चौरा
दादी अक्सर वहीं जमाए
रहती अपना डेरा
एक कोने में चापाकल
जहाँ होता कोलाहल
पर जीवन बदरंग नहीं था
हर्ष, उल्लास और उमंग था

बाहर के बरामदे में
एक बडी सी आरामकुर्सी
जिसपर पसरते दादाजी
देखते आते-जाते लोगों को
उनके अभिवादन का जवाब देते
कुशलक्षेम पूछते
अखबार पढते
बच्चों के साथ लूडो या कैरम भी खेलते
दिन भर लोगों का जमावडा होता,
सब पूछते उनकी राय
बीच-बीच में घर की बहुएँ भेजती रहतीं चाय

सबेरे दादी के चापाकल चलाने की आवाज से
धीरे-धीरे हर कमरे के खुलते दरवाजे
अलसाती,जम्हाई लेती निकलती
चाचियाँ, फूफियाँ पाँच बजे
देर से निकलते चाचा और फूफा
झेंप मिटाते, कहते
मैं तो तडके ही जग गया था
फिर अपने-अपने कमरे के सामने
ड्योढी में बैठ
मोटे पीतल के गिलास में
चाय सुडकते
मसखरी करते
बतकही करते
खाने का मेनु तय करते
बाहर बैठे दादाजी को प्रणाम करते
और अपने-अपने काम पर चले जाते


शाम को आने पर फिर सब इकट्ठे होते
चाय पीते,
फिर रात घिर आती
यह जानते हुए भी कि
बिजली नहीं आने वाली,
बिजली की प्रतीक्षा करते
आँगन में जमा होते
दरियाँ बिछतीं
लालटेन की मद्धिम रोशनी में
फूफा गाना गाते
फिर वे बडकी चाची से गाने की जिद करते
दादाजी भी मानते
वह बहुत सुरीली है
खूब मीठा गाती
मैं माँ की गोद में लेटा-लेटा
आकाश में छिटके तारे देखता और
बडकी चाची का गाना सुनते-सुनते सो जाता
उस रात मेरे सपने में
कोई परी आती
जिसकी शक्ल मेरी चाची से मिलती

आँगन के बीचो-बीच एक नीम का पेड उग आया था
मैं अक्सर सोचा करता
एक दिन यह पेड बहुत बडा हो जाएगा
फिर मैं उसकी फुनगियों को
नहीं छू पाउँगा
मेरी दादी उसकी जडों में रोज पानी देती

एक दिन घनघोर विलाप हुआ
दादाजी को आँगन में लिटाया गया था
सफेद चादर में
हर कमरे से निकली चाचियों, फूफियों के करुण-क्रन्दन से
थर्रा गई थीं हवेली की दीवारें भी
मुझे सिर्फ इतना याद है कि
दादाजी का मुँह खुला हुआ था
जैसे वे अवाक हों कह रहे हों, यह क्या हो गया?

सिर्फ तीन महीने बाद ही
छोटका बाबा ने माँग की थी..
उनका कुनबा बडा हो गया है
उन्हें कुछ और कमरे चाहिए
उस दिन बडकी चाची ने खाना नहीं खाया

दादाजी का रेडियो-घर उनका हुआ
उस दिन के बाद उस कमरे से रोज हमें
नए समाचार सुनने को मिलने लगे
और एक दिन आँगन में इक दीवार उठी
कमरे के साथ कई चीजें बँटी
तुलसी का चौरा और चापाकल उनकी तरफ
और कुलदेवता का कमरा दूसरी तरफ
आठ कमरे उनकी तरफ और चार दूसरी तरफ
धूप और छाँव बँटे
चाँद और सितारे भी बँटे
हमारे कई सपने घटे
दादाजी की कुर्सी, छडी, और न जाने कितनी चीजें उस तरफ
उनके होने का अहसास इस तरफ
नीम का पेड उस तरफ
डालियाँ इस तरफ
चाची उस तरफ
कानों में उनकी सुरीली तान की गूँज इस तरफ

बरस बीते
उन आठ कमरों का हिसाब तो मुझे नहीं मालूम
पर इस तरफ के चार कमरे भी घट कर एक हो गए
फिर आंगन में दीवार उठी थी..
फिर चाँद-सितारों का बटवारा हुआ था


उन्हीं कमरों की तलाश में मैं
अपने बेटे के साथ उस ड्योढी पर हूँ खडा
जहाँ कभी लोगों का होता था जमावडा

दालान का पता नहीं
हवेली कब की मिट चुकी
घर कमरों में तब्दील मिली
छोटका बाबा, दोनों दादियाँ और पिता जी
तो मेरे होशो-हवास में गुजरे
पर चाचा और फूफा की तस्वीर भी टंगी मिलीं

किसी कमरे से खाँसती हुई निकली बडकी चाची
मुझे देखते ही बोलीं, बउआ जी
उस रात बँटे हुए आँगन के एक छोटे से हिस्से में
तारों भरे आकाश के नीचे
भरभराई आवाज में चाची ने एक गीत सुनाया
मेरे मुन्ने को सुलाने के लिए
और देखते देखते वह सो गया

लौटने पर उसने अपनी तोतली आवाज में
कहा,
रात उसके सपने में एक परी आई थी..
जिसकी शक्ल बिल्कुल मेरी चाची जैसी थी...


Thursday, September 22, 2011

आँकडे झूठ नहीं बोलते


आँकडे झूठ नहीं बोलते
आँकडे बताते हैं कि लोगों की
आर्थिक स्थिति में हो रहा है सुधार
इसलिए आँकडों से खुश है सरकार

आँकडे सजे होते हैं पावर-प्वाइंट प्रेजेंटेशन में
दिखाए जाते हैं मीटिंग में
वातानुकूलित सभागारों में
छपते हैं अखबारों में
जिसे पढते हैं नेता
अध्यापक और पूरी जनता
जिसे रटते हैं शोधार्थी
लिखते हैं परीक्षा में विद्यार्थी
इसलिए वे झूठ नहीं लगतेç
सत्य प्रतीत होते

मैंने भी कल ही अखबारों में पढा
कारों की बिक्री के सम्बन्ध में इक आँकडा
औरंगाबाद में कारों की बिक्री में सर्वाधिक इजाफा हुआ
एक ही मास में एक कार डीलर को अच्छा मुनाफा हुआ
आंकडे थे कि कितने लोगों ने खरीदी गाडियाँ बडी
किसने खरीदी मर्सीडीज और किसके दरवाजे बीएमडब्ल्यू खडी
व्यापारियों ने एक मुश्त 65 करोड की कुल 150 मर्सीडीज खरीदीं
पर नहीं दिखी किसी को उसी कस्बे के किसानों की नाउम्मीदी

हाँ..मंगरू ही उसका नाम था
कर्ज में डूबा एक किसान था
कल ही तो गया था वह
बैंक की इक शाखा में
दिन भर दरवाजे पर खडा रहा
और रात में ही चल बसा

चाहिए थे उसे कुछ रूपए महाजन को देने के लिए
और कुछ उस बनिए की पिछली उधारी के लिए
बनिए ने आगे का राशन देना रोका था
मंगरू परिवार-संग कई दिनों से भूखा था
रूपए मिलते तो लेता थोडा आटा और दाल
कुछ दिनों के लिए सही, शायद सुधरता उसका हाल
पर रोटी उसे नसीब न थी
और न ही उसकी दाल गली
कर्ज के बोझ से बेहतर
मौत ही अच्छी लगी
मर गया वह मन में ही लिए इक लालसा
उसका मरना था लोगों की नजर में हादसा
इसलिए उसकी गरीबी का नहीं कुछ जिक्र है
अखबारों को भी नहीं ऐसे लोगों की फिक्र है
न वह आंकडों में शामिल हुआ
न ही उसे कुछ हासिल हुआ
न वह छपा अखबारों में
न ही चर्चा हुई सभागारों में
आंकडे कहते हैं कि हम प्रगति कर रहे
इसलिए यह झूठ है कि किसान मर रहे

सच है कि आँकडे होते हैं सच के करीब
मंगरू अगर मर गया तो यह है उसका नसीब

Thursday, September 15, 2011

आकाश



बाहर फैला इक आकाश 
मेरे भीतर भी आकाश
बाहर कितनी नीरवता है
मेरे भीतर सन्नाटा है
बाहर उडते कुछ बगुले हैं
मेरे भीतर इक चिडिया है
बाहर खग मस्ती में गाते, फैला है उल्लास
मेरी चिडिया बन्द कमरे में रहती बडी उदास

बाहर बादल रंग-बिरंगे
मेरे भीतर काला रंग है
बाहर सूरज अजर-अमर है
मेरे भीतर तम का घर है
हे ईश्वर तुम परत हटाओ
कोई ऐसी जोत जलाओ
तम के इस गहरे गह्वर में, फैला दो प्रकाश
बरसों से मैं भटक रहा, मेरा सूना है आकाश

बाहर भीतर जब मिल जाएँ
जनम-मरण से मुक्ति पाएँ
सुख दुख का बंधन फिर छूटेçþ
मोह-पाश की गाँठे टूटे
बाहर भीतर मिल जाने परþ
कितना सीमित है आकाश
फिर बाहर चिडिया उडने को करती नहीं प्रयास
मस्ती में कहती फिरती है सुन्दर है आकाश


धूप में निकलो


 

मैं हूँ तो रोशनी है इस जग में
मैं हूँ तो जिन्दगी है पग-पग में
उर में धधकती हुई ज्वाला
कर में लिए अमृत प्याला
नीलकण्ठ की तरह विषपान कर
प्राणियों में जीवनदान कर
फूल खिलते हैं मुझे ही देखकर
कैद से फिर छूटते भँवरे के पर
हर तरफ गूँजे पक्षियों के मधुर स्वर
खेत को भागे कृषक और जानवर
बीज बोए बाग होते हैं हरे
रंग बादलों में मैंने ही भरे
अब्र बनते हैं मुझसे ही घने
सब काम पर जाते भले हों अनमने
है वही इंसान अनुभव का धनी
जिसके तंबई तन पसीनों में सने





सफर में धूप तो होगी

1
 
सफर में कडी धूप का बहाना छोडो
जो चल सको तो चलो मुँह न मोडोç
चलोगे साथ तो रास्ता खुद-ब-खुद कट जाएगा
धूप से हिफाजत का भी कोई वास्ता बन जाएगा
कहीं पेडों के साए मिल ही जायेंगे तो कहीं बादल
कहीं ताल-तलैया भी मिलेंगे तो कहीं झील में कमल
कुछ न होगा तो रहेगी मेरी पलकों की छाँव
फिर न चुभेगी ये कडी धूप न दुखेगा पाँव
मेरे माथे पर तेरे आँचल का साया होगा
तेरे माथे पर मेरी बाँहों का घेरा होगा
कितना आसान फिर यह रास्ता हो जाएगा
हमसफर हमदर्द बन आँखों में बस जाएगा
मुद्दतों बाद फिर आँखों में नमी आएगी
धूप भी थक-हार कर शाम को ढल जाएगी

Tuesday, September 13, 2011

बाबूजी और मैं


जब भी सुनता हूँ कि
औलाद को पिता से आगे निकलना चाहिए
दिल पर एक आरी सी चलती है


लोग कहते हैं कि मैं अपने पिता से आगे चल रहा हूँ

वे  पैदल चलते थे,
मेरे पास कार
उनकी आवश्यकताएँ सीमित,
मेरी चाहतें बेशुमार
उनके पास दो जोडी धोती
तो मेरी वार्ड-रोब भरी होती
उनके पास एक जोडी चप्पल और एक जोडे जूते
मेरे पास न जाने कितने होते


लोग कहते कि मैँ अपने पिता से आगे चल रहा हूँ

उनकी तनख्वाह दो हजार
मेरे शेयर मेँ इंवेस्ट
उनकी जमापूँजी हम दो भाई
मेरे कई एसेट्स
वे शनिवार हनुमान मंदिर जाते
मैँ पिक्चर या क्लब
वे चिंतन मनन करते
मैँ दोस्तों से गप-शप

लोग कहते कि मैँ अपने पिता से आगे चल रहा हूँ

उनकी तनख्वाह कम, निर्भर दस
फिर भी रहते सब संतुष्ट
मेरी तनख्वाह अधिक, निर्भर दो
फिर भी हैं सब रुष्ट



Saturday, August 27, 2011

दिन की शुरुआत

सबेरे उठते ही मत पढ लेना अखबार
तुम्हारा सारा दिन हो जाएगा बेकार
पहले ही पृष्ठ पर छपी
हत्या, बलात्कार, जमाखोरी और भ्रष्टाचार की खबरों से
जग जाएगा तुम्हारे अन्दर का जानवर भी
फिर नाहक ही
बेवजह
बिना बात के
मॉं पर चीखोगे
पत्नी पर चिल्लाओगे
बच्चों पर झल्लाओगे
खाने की थाली ठुकराओगे

अपने ही मोहल्ले में हुई
किसी घर में
दहेज के लिए
किसी मासूम की
हत्या की खबर पढोगे
तो दीवारों से
सर फोडोगे

शहर के किसी खास व्यक्ति के
देह व्यापार में लिप्तता की खबर पढोगे
तो चौंकोगे
भ्रम टूटने का दंश झेलोगे

सिनेमा वाले पृष्ठ में
तारिकाओं की अधनंगी तस्वीर देखोगे
तो शरमाओगे,
झेंपोगे,
बच्चों से मुँह चुराओगे
उनके उन्मुक्त, स्वच्छन्द जीवन शैली की कहानियाँ पढोगे
तो अपने को वर्जनाओं में जकडे हुए पाओगे
मुक्ति की छटपटाहट में
भटक जाओगे
घर तोडोगे

करमू के अदम्य साहस की खबर
जिसने कोशी की बाढ की उफनती लीलती लहरों से
अकेले ही
बारह लोगों की जान बचाई थी,
इश्तहारों के बीच
कहीं दम तोडती देखोगे
तो दुखी होगे
गुस्साओगे

मास्टर साहब के सपनों की कहानी
जिन्होंने पूरे गाँव को साक्षर बनाने की ठानी,
अखबार में
ढूँढते रह जाओगे

और....तुम्हारे गाँव के रहमत चाचा के
संघर्षों की गाथा,
उनकी बूढी आँखों में
भविष्य की चिंता की कथा
उनकी पथराई जागती आँखों में कटी
अनगिनत रातों की व्यथा
जिनकी इकलौती औलाद ने
कारगिल युद्ध में शहादत पाई थी,
अखबार में ढूँढने की सोचना भी मत
पछताओगे


मेरी मानो
सबेरे उठते ही
कुछ पल के लिए
आँखें बन्द कर लेना और सोचना
किसी बच्चे की खिलखिलाहट को
किसी दोस्त के उन्मुक्त सानिध्य को
किसी बूढे-बूढी के पोपले मुँह को
उनके चेहरे की अनगिनत झुर्रियों को
उनके दूध से सफेद रुई जैसे रेशमी बालों को
अपनी माँ के दिन-रात की मेहनत को
उनके पाँव की फटी बेवाई को
अपने दिवंगत बुज़ुर्गों को
उनके स्नेह सिक्त वचनों को
उनके  पसीनों की खुशबू को
उनके वापस घर आने पर
फैली घर की रौनक को
अपने सर पर उनके स्पर्श को
और उनकी स्निग्ध हँसी को

इतना करने के बाद
हो सके तो मुस्कुरा देना और
धीरे से आँखें खोल देना
यकीन मानो,
दिन ही नहीं
तुम्हारी दुनिया भी संवर जाएगी