Thursday, September 15, 2011

आकाश



बाहर फैला इक आकाश 
मेरे भीतर भी आकाश
बाहर कितनी नीरवता है
मेरे भीतर सन्नाटा है
बाहर उडते कुछ बगुले हैं
मेरे भीतर इक चिडिया है
बाहर खग मस्ती में गाते, फैला है उल्लास
मेरी चिडिया बन्द कमरे में रहती बडी उदास

बाहर बादल रंग-बिरंगे
मेरे भीतर काला रंग है
बाहर सूरज अजर-अमर है
मेरे भीतर तम का घर है
हे ईश्वर तुम परत हटाओ
कोई ऐसी जोत जलाओ
तम के इस गहरे गह्वर में, फैला दो प्रकाश
बरसों से मैं भटक रहा, मेरा सूना है आकाश

बाहर भीतर जब मिल जाएँ
जनम-मरण से मुक्ति पाएँ
सुख दुख का बंधन फिर छूटेçþ
मोह-पाश की गाँठे टूटे
बाहर भीतर मिल जाने परþ
कितना सीमित है आकाश
फिर बाहर चिडिया उडने को करती नहीं प्रयास
मस्ती में कहती फिरती है सुन्दर है आकाश


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