Thursday, December 15, 2011

राम के सान्निध्य की प्रार्थना


प्रार्थना
(1)
संसार में आते ही
मुखरित हुई थी सबसे पहले वाणी ही

कितना आश्चर्य
कितनी पीडा
कितना संशय
कितनी छ्टपटाहट
और बेचैनी से हमने रो रोकर कहा .
केहाँ...केहाँ,,,, अर्थात कहाँ...कहाँ..

काश,
गर्भनाल से कटने के बाद
उच्चरित होता तुम्हारा नाम
फिर हो जाता हमारा यह सफर
कितना आसान

भवसागर में तैरते, उपलाते  
रामसेतु के पत्थर की तरह
तुम्हारे नाम से हम ...
पार होते, औरों को भी कराते
हँसते हुए आते, हँसते हुए जाते
टूटने पर डाली से किसी पत्ते की तरह
पीडा न होती
हो जाता बराबर टूटना और जुडना तब

खैर,
देर नहीं हुई है अब भी
जाते वक्त कम से कम
निकले मुख से तेरा नाम
ऐसा ही वर दो
हमको हे राम !

(2)

सान्निध्य
मालूम होता गर तुम्हें
तुम्हारा साथ नहीं रहने पर
कितना गुमराह हुए हैं हम
तो शायद
अलग न करते
अपने से
कभी यूँ

हाथ-पाँव मारे हमने
कुछ पाया
कुछ खोया
खोया तो किस्मत को दोषी माना
पाया तो अपनी काबलियत समझी
जो भी पाया
गुमान हुआ हमें
पाने का गुमान
कुछ करने का गुमान
फूल गए हम कर्ता भाव से
समझने लगे खुद को
सर्वशक्तिमान
विद्या प्राप्त की तो
ज्ञान का मद हुआ
भक्ति की तो उपदेशक बन गया
धनार्जन किया तो धन के मद में चूर हुआ
शक्ति प्राप्त की तो मदान्ध हो गया

तुम साथ रहते तो कभी न होता ऐसा
तुम्हारे सान्निध्य में
हमारा मद
दम में बदल जाता
मद में आदमी होता है मदान्ध
पर दम में दमदार
दम हमें सिखाता दमित करना
अपने अहं को, अपने मैं को
तभी तो दम है शक्ति
जिसने दमित करना सीखा
वही हुआ ज्ञानी और शक्तिवान 

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