Thursday, September 15, 2011

धूप में निकलो


 

मैं हूँ तो रोशनी है इस जग में
मैं हूँ तो जिन्दगी है पग-पग में
उर में धधकती हुई ज्वाला
कर में लिए अमृत प्याला
नीलकण्ठ की तरह विषपान कर
प्राणियों में जीवनदान कर
फूल खिलते हैं मुझे ही देखकर
कैद से फिर छूटते भँवरे के पर
हर तरफ गूँजे पक्षियों के मधुर स्वर
खेत को भागे कृषक और जानवर
बीज बोए बाग होते हैं हरे
रंग बादलों में मैंने ही भरे
अब्र बनते हैं मुझसे ही घने
सब काम पर जाते भले हों अनमने
है वही इंसान अनुभव का धनी
जिसके तंबई तन पसीनों में सने





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