Sunday, September 7, 2014

रात की आवाज़




उम्र हो चली है
आती है नींद अब किश्तों में  
पहले जैसा नहीं कि
एक बार बिस्तर पर लुढ़कूँ
तो सूरज सर पर चढ़ने पर ही उठूँ


अब कभी प्यास लगती है
तो नींद टूट जाती है
और कभी जमा होता है पानी 
पेट के नीचे
तो उठ बैठता हूँ
फिर देर तक सुनता हूँ
सदाएँ रात की

हैरत होती है मुझे...
यह खामोश रात भी समेटे हुए है
न जाने कितनी सदाएँ

कल रात नींद खुली
छत पर निकल आया
साफ सुनाई दे रही थी
दूर किसी ट्रेन के गुज़रने की आवाज़
उसकी धड़ड़-धड़ड़ सीधा दिल पर हथौड़े सी चोट करने लगी 
महसूस ये हुआ जैसे लाइन पर ही खटिया बिछी हो मेरी
अमूमन यह आवाज़ दिन में सुनाई नहीं देती

फिर सुनाई दी  
चिर्र्र्रर्रर्र्र्र्र्र्र्रर्र चर्र्र्र्रर्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र की आवाज... लगातार
झिंगुर गा रहे थे
स्तब्ध, मौन सुनता रहा उस गान को

तभी आसमान में कहीं नगाड़ा बजा
चिंहुक उठा था मैं
किसी ने कान में हौले से कहा
घबराओ नहीं, 'दौड़ते हुए दो बादल
टकरा गए हैं आपस में'

चीं चीं कर कोई चिड़िया फिर सर से गुज़री
जैसे कोई भटका हुआ मुसाफिर  
ढूँढता हो अपना ठिकाना 

टुर्र-टर्र टुर्र-टर्र ध्वनि आने लगी मेरे कानों में
समवेत स्वर में गा रहे थे स्वागत गान
बारिश की अगवानी में मेंडक

कमरे में लौटा
किर्र-कर्र किर्र-कर्र...करर-करर...
न जाने यह कैसी आवाज़ थी
आवाज की जानिब ढूँढता रहा
कभी लगता इस कोने से आई यह आवाज़
तो कभी आलमारी के पाए से निकलती लगती

रात भर आवाज़ की तलाश ज़ारी रही
सबेरे आँख भी भारी रही

दिखी बुक सेल्फ के पीछे काग़ज की कतरन
रात भर पढ़ डाली थी चूहे ने इक किताब
और कुतर डाला था उसके हर्फों को

और पलंग के पाए के पास 
दिखे लकड़ी के बुरादे
जो बता रहे थे दीमक के इरादे...!! 





No comments: