रात भर बरसात में भीगे हुए
शहर के ये मकान सबेरे यूँ लगते हैं
जैसे नज़ला हो गया हो उन्हें
इधर-उधर छज्जों से चूते टपकते पानी
जैसे नाक बह रही हो उनकीइन मकानों के न तो कोई माशूका हैं और न ही कोई माँ
दिन भर भीगे खडे रहते हैं तनहा
अनाथ बच्चों की तरह
न कोई तौलिया से सर पोंछता है इनका
और न ही बदन
वैसे ही खडे-खडे सूख जायेंगे धूप में गर धूप
निकली तो
या भीगे ही रहेंगे दिन भर
छींकते-चूते
स्याह पड जायेगा इनके बदन का रंग
बीमार बीमार से दीखेंगे फिर ये जाडों मेंछूटेगी जब इनके बदन से परत चमडों की
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