Sunday, June 10, 2012

समय समय का फेर..


जब मैं नाना के घर रहता था
तो रौनकें होती थीं घर में
न जाने कितने लोग आते थे,
रहते थे
रेला था
एक मेला था
मामा-मामी
छोटका नाना-नानी
मौसा-मौसी
भाई-बहने
मस्ती के थे क्या कहने
गाँव से आता तीमारदार
गर पडता कोई बीमार

दादा के घर भी
क्या खूब मजे थे
हमारे सपने वहीं तो सजे थे
चाचा-चाची
फूफा-फूफी
भाई-बहने
सुख-दुख थे मिल-जुल कर सहने
खेतों की पैदावार
घर लाते बंटाईदार...

अब मैं भी किसी का नाना हूँ
और किसी का दादा भी
फिर क्यूँ मैं इतना तन्हा हूँ
दीवारों को तकता हूँ
रस्ता देखा करता हूँ
बाट निहारा करता हूँ
आहें भरता रहता हूँ
मैं भी किसी का नाना हूँ
मैं भी किसी का दादा हूँ
फिर क्यूँ मैं इतना तन्हा हूँ ...???

2 comments:

Swadesh Ranjan Biswas said...

Kavivar ke dard ka mai sahabhagi hun .Maryadaon ka bhari awamulyan hua hai.Pariwar bikhar chuka hai,rishton ka wah atoot bandhan ab kahan raha ?

Sudhanshu said...

dhanyavaad dada..