Tuesday, February 24, 2015

बेमौसम बरसात




बिल्कुल उस घर के तीसरे माले की खिडकी के सामने से ही
लहरा कर गुजरता था वो 
जैसे उछल कर छूना चाहता हो चाँद कोई
उतर जाता था दूसरी तरफ
फिर धीरे धीरे
ससरता हुआ
खाली हाथ  

नीचे से गुजरती थी ट्रेनें
और ऊपर से मैं
करीब करीब रोज़ाना
उस खिडकी से झाँकता था इक चाँद
अक्सर शाम ढलने पर

अरसा हो गया इस बात को
कल मुद्दत बाद उस पुल से गुजरते वक्त
गर्दन घूम गई थी उस घर की तरफ 
बेख़याली में
अचानक ही
कि होने लगी बारिश
वाइपर तेज कर दी थी मैंने

यह तो सूखी सडक पर पाँव पडने से मालूम हुआ
बरसात आँखों में थी

  


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