Monday, February 16, 2015

ताछोड़ो....

ताचड़ो’ बोलता था वह
और हम समझते थे ‘ताछोड़ो’
न वह सही बोलता था
न हम ठीक समझ पाते थे

घर के बगल वाली ज़मीन पर ही था वह ताड़ का पेड़
जिसपर कहीं से कटी हुई पतंगे आकर फँसती थीं
हज़ार कोशिशें होती थीं उसे उतारने के लिए
तब हमें इंतज़ार होता था उस पासी का
जो पाँव में रस्सी फँसा, कमर में हँसिया, पीछे हँडिया लटकाए
चढ़ जाता था उस ऊँचे ताड़ पर तेजी से

खेल था उसके बाएँ हाथ का 
इतने ऊँचे पेड़ पर चढ़ना

चढ़ने के पहले
एक कर्कश आवाज फूटती थी उसके गले से
“ताचड़ो.....” यानी “ताड़ चढ़ो”  
बिना टेर लगाए भी चढ़ सकता था वह ताड़ पर
पर एक तहजीब निभाता था वह
अगल बगल के मकानों में उस ऊँचाई से
ताक झाँक करने का आरोप लग न जाए कहीं
आगाह कर देता था अपनी टेर से

उसकी गगनभेदी आवाज़ सुन हम दौड़ आते थे
उससे हफ्ते पहले की फँसी हुई पतंग उतारने के लिए कहते थे
वह ऊपर पहुँच कर
हँसिया से न जाने क्या-क्या काटता-छीलता था
फिर उतारता था पिछले हफ्ते की रस से भरी हड़िया
और टाँग देता था उसकी जगह नई
उतरने के पहले हँसिया से काट देता था वह
पतंग के उलझे धागों को
हिचकोले खाने लगती थी कटी-फटी पतंग इधर-उधर
बच्चे भागते थे पतंग के पीछे और
हम देखते थे उसे नीचे उतरते
सरसराते हुए
ख्वाहिश होती थी हमें भी
उस पेड़ पर चढ़ कर चाँद छूने की 

एक दिन उस जमीन के चारों तरफ बाउंड्री बनी
और फिर एक बड़ा सा मकान
कट गया ताड़ का पेड़
छोड़ दिया पासी ने वह रिहाइशी इलाका
सच हो गया हमारा समझना “ताड़ छोड़ो”  

पतंगों ने भी ढूँढ लिया अपना आशियाँ
टीवी एंटीना पर 
और चाँद जो ताड़ से झाँकता था अक्सर
चढ़ गया आसमाँ में और ऊपर
दफ़्न हो गई हमारी ख़्वाहिश
चाँद छूने की
उसके बाद..

    

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