Wednesday, August 6, 2014

उम्र जो हो चली है



दूर ट्रेन की आवाज़ से नींद खुल जाती है मेरी
पता चल जाता है मुझे
डेढ बज रहे होंगे
समय हो चला है शहीद एक्सप्रेस का

फिर भागते लोगों के मंजर तैरने लगते हैं 
आँखों में 
और चीखें ही चीखें सुनाई देती हैं कानों में 
‘वाहे गुरु सब ठीक करेंगे’
‘बस सरहद पास ही है’
’अमृतसर पहुँच जायें किसी तरह’

मैं छत पर निकल आता हूँ
आकाश की ओर देखता हूँ
नि:स्तब्ध रात्रि में थोडी देर टहलता हूँ 
चाँद से पूछता हूँ
'ऐ चाँद, तू ही बता
ऐसा मंजर क्यों दिखलाई देता है मुझे अक्सर रातों में
ख्वाब आने से नींद मेरी खुलती है
या नींद खुलने से ऐसे मंजर तैरते हैं मेरी आँखों में
चाँद, बता तो सही’

उसने बताया,
'तू तो उस वक्त पैदा भी नहीं हुआ था
जब अफरा तफरी मची थी
एक लकीर खींची थी रेडक्लीफ ने 
दो मुल्क बने थे
मैं गवाह हूँ दोनों मुल्कों की कहानी का
देखा है मैंने हर हक़ीकत अपनी आँखों से

पर तू क्यों जागता है शहीद एक्सप्रेस के आने पर 
बँटवारे के दौर की किताबें पढ कर न सोया कर
हटा दो अपने सिरहाने से ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’,
‘तमस’, ‘रावी पार’ या ‘पिंजर’
नहीं तो ज़ेहन में घूमेंगे वही मंजर
उम्र जो हो चली है तुम्हारी'..!!


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