दूर ट्रेन की आवाज़ से नींद खुल जाती है मेरी
पता चल जाता है मुझे
पता चल जाता है मुझे
डेढ बज रहे होंगे
समय हो चला है शहीद एक्सप्रेस का
फिर भागते लोगों के मंजर तैरने लगते हैं
आँखों में
और चीखें ही चीखें सुनाई
देती हैं कानों में
‘वाहे गुरु सब ठीक करेंगे’
‘वाहे गुरु सब ठीक करेंगे’
‘बस सरहद पास ही है’
’अमृतसर पहुँच जायें किसी तरह’
मैं छत पर निकल आता हूँ
आकाश की ओर देखता हूँ
नि:स्तब्ध रात्रि में थोडी देर टहलता हूँ
चाँद से पूछता हूँ
चाँद से पूछता हूँ
'ऐ चाँद, तू ही बता
ऐसा मंजर क्यों दिखलाई देता है मुझे अक्सर
रातों में
ख्वाब आने से नींद मेरी खुलती है
या नींद खुलने से ऐसे मंजर तैरते हैं मेरी आँखों
में
चाँद, बता तो सही’
उसने बताया,
'तू तो उस वक्त पैदा भी नहीं हुआ था
जब अफरा तफरी मची थी
एक लकीर खींची थी रेडक्लीफ ने
एक लकीर खींची थी रेडक्लीफ ने
दो मुल्क बने थे
मैं गवाह हूँ दोनों मुल्कों की कहानी का
देखा है मैंने हर हक़ीकत अपनी आँखों से
पर तू क्यों जागता है शहीद एक्सप्रेस के आने पर
बँटवारे के दौर की किताबें पढ कर न सोया कर
बँटवारे के दौर की किताबें पढ कर न सोया कर
हटा दो अपने सिरहाने से ‘ट्रेन टू
पाकिस्तान’,
‘तमस’, ‘रावी पार’ या ‘पिंजर’
नहीं तो ज़ेहन में घूमेंगे वही मंजर
उम्र जो हो चली है तुम्हारी'..!!
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