Friday, January 3, 2014

उजडी हवेली



माँ के कहने पर बरसों बाद आया था गाँव
देखने अपने पुरखों के मकान और बुज़ुर्गों की ज़मीनें 
खडा एक-टक देख रहा था गाँव का वह मकान
जहाँ रौनकें हुआ करती थी कभी

पर अब हैं झडते प्लास्टर, चटकी दीवारें,
टूटे हुए छज्जे और उखडे हुए खिडकी के पल्ले
दरारों से निकलते बरगद और पीपल के पौधे

जंग लगे पुराने ताले को खोल कर
दाखिल हुआ अपने पुश्तैनी मकान में 
कबूतरों के बीट से पटा हुआ था फर्श
और अर्श पर उलटे लटके मिले थे कुछ चमगादड 
मकडों के जाले हटाते मैं पहुँचा आँगन में
जहाँ मंडप बने थे कभी
और हुई थी शादियाँ बुआओं की
और मेरा यज्ञोपवीत संस्कार

मत रो माँ... क्या हुआ जो उजड गया इक रैन बसेरा
खुश रहो कि अब यहाँ परिन्दों ने डाल रखा है डेरा


01.01.2014 

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