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ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था
जैसा फिल्मों में होता है
न फोटो गिरा, न दीया बुझा
न लौ ही थरथराई थी आँगन में
न ही किसी परिन्दे के उडने
की फडफडाहट
देर तक गूँजी थी कानों में
न ही चौंक कर जागी थी वह
न ही दिल उसका धडका था
न ही दिल उसका धडका था
रोज़ की तरह सूरज भी ढला था
वक्त पर ही
और साँझ घिर आई थी
हौले-हौले
दरवाज़े पर दस्तक की आस
संजोए
चूल्हे पर चाय की केटली रख
किसी पत्रिका के पन्ने
पलटते
देख लेती थी बीच बीच में वह
टिक-टिक करती घडी की
सूइयाँ
रोज़ की ही तरह
कि एक लमहे का पाँव फिसला
था
और सो गई थी ज़िन्दगी
वक्त के पहिए तले
गुमसुम ...चुपचाप
और एक दुनिया उजडी थी
(22 दिसम्बर को जीजाजी की याद में )
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