Monday, January 27, 2014

मौसम का मिजाज


इस मौसम का मूड दिन भर न जाने कितनी बार बदलता है !
आज सबेरे ही सारे शहर को ढक रखा था
कोहरे की सफेद चादर में
जब मैं ट्रेन से उतरा था !!

स्कूल की बस खड्ड में गिर न जाए कहीं
कर गया छुट्टियाँ स्कूल-कॉलेजों में
बारह बजे अचानक बदली का शॉल हटा झाँका सूरज
कोहरे की चादर तहिया कर 
रख दिया आसमान के किसी वार्डरोब में कल के लिए....

दो बजे धूप में घरों की छत पर सूखने लगे कपडे
मजिस्ट्रेट कोसने लगे उसको कि    
तीन बजते-बजते चलने लगी तेज हवाएँ
बारिश की बौछारों में फिर पडने लगे ओले भी
चार बजे ही रात का आलम था
फिर शाम से ही मुँह फुलाए करवट बदल
सो गया बिन कुछ खाए
मना कर गया कोई बत्ती न जलाए
‘माइग्रेन’ है उसको...
बत्ती आँख में चुभती है  
इस मौसम का मूड दिन भर न जाने कितनी बार बदलता है..!

  


कुछ कम्प्यूटरी कविताएँ


1.

चलो न एक ‘आईडी बनाएँ
अपना नाम छिपाएँ
भेजें एक दूसरे को ‘फ्रेंड रिक्वेस्ट’
’फेसबुक’ पर
फिर खूब करें हम
प्रेम की बातें

तुम्हारे दिल में भी तो दबी होंगी
सदियों पुरानी छटपटाहट
कि कोई तो हो
रख दें जिसके सामने अपना दिल खोलकर
आओ तोड दें हम
वर्जनाओं की ज़जीरें
एक ‘क्लिक’ के साथ
और देखें एक दूसरे का ‘टाइमलाइन’
के इतने दिनों में कितना बदल चुके हम
अभी भी वैसे ही ‘ग्लो’ करती हो तुम
या सिलवटें पडने लगी हैं चेहरे पर
तुम्हें भी तो ख़्वाहिशें होंगी जानने की कुछ
वक्त के थपेडों में वक्त के पहले ही
सफेदी आ चुकी कब की बालों में
नज़दीक का चश्मा भी चढ गया है आँखों पर
हमें कहाँ कभी भी किसी ने सुना,
पहले बाप-दादा, अब बच्चों की सुन रहे हम
आओ सुनाएँ एक-दूसरे को दिल की बातें 
पूरा करें साथ दरिया के किनारे बैठकर
'सनसेट' देखने का तसव्वुर
‘मज़ा आता अगर बीती हुई बातों का अफसाना
कहीं से तुम  बयाँ करते, कहीं से हम बयाँ करते’
आओ न ...
एक आई डी बनाएँ...!!

2.
क्यों चौंक रही हो तुम,
मेरे फेसबुक में नौ सौ बत्तीस ‘फ्रेंड्स’ देखकर
इनमें चार सौ पचपन लडकियाँ हैं इसलिए?
अरे नहीं... ये सब तो यूँ ही मुझसे जुडी हैं
जैसे औरों से भी जुडी होंगी
ये सब झूठे हैं
शायद नाम भी झूठे हों
और तस्वीर भी किसी और की लगा ली हो शायद...

मैं भी कहाँ सच्चा हूँ
क्या नहीं हो सकता है कम्प्यूटर में ?
तुम भी जुड जाओ न मुझसे ‘करीना’ बनकर
मैं भी ‘सैफ’ की तस्वीर ‘कॉपी’ और ‘पेस्ट’ कर दूँगा
अपनी जगह
फिर तलाशेंगे एक दूसरे में सच्चे दोस्त की तस्वीर
रोज़ाना
देर रात तक ‘इंटरनेट’ खोल कर

3.
कितना अच्छा लगेगा जब
मेरी डाली हुई ‘सनसेट’ या चिडिया या किसी फूल की तस्वीर को
‘लाइक’ करोगी तुम
या किसी लिखी हुई किसी साधारण सी बात पर भी
'कमेंट’ में लिखोगी ‘सुपर्ब’ या ‘2गुड’
कहाँ कोई किसी की तारीफ करता है मुँह पर
और पीठ पीछे तो रवायत ही है शिकायत की 
भला हो ‘ज़ुकरबर्ग’ का
जो है सामने है
पता है?
अब मौत की ख़बरें देने पर भी
आने लगे हैं मित्रों के ‘लाइक’
अम्मा की मौत की ख़बर डाली थी ‘फेसबुक’ में
कुल बत्तीस ‘लाइक’ आए थे
कहाँ मिलते हैं अब काँधे अर्थी उठाने वास्ते
या सर रख कर रोने के लिए
‘लाइक’ और ‘कमेंट की संख्या गिन
ख़ुश हो लेना ही काफी है
कि शरीक हैं इतने लोग
मातमपुर्सी में....!!






Sunday, January 12, 2014

कोहरा

1. 
  
घना कोहरा है
बह रही हैं तेज बर्फीली हवाएँ भी
कल ही बर्फ गिरी थी बारिश में
लोग दुबके हुए हैं
अपने-अपने मकानों में

स्टेशन के बाहर ही है एक चाय की दुकान
सबेरे सवा छ: बजे
वक्त हो चला है ट्रेन का
मजदूर उतरेंगे ट्रेन से,
सबेरे की चाय की तलब
खींच लाएगी उन्हें
दुकान पर

यही वक्त है रामदीन के लिए बिजनेस पकडने का
‘मिस’ किया तो फिर फाका रहेगा सारा दिन
वक्त है लोगों के घर में रहने का, 
सोए रहने का ओढ कर गर्म रजाई  
या ब्लोअर की गर्म हवाओं में
सर्दी है बाहर अभी
शीत लहर है

पर फटी गंजी में है रामदीन
चूल्हे में कोयला डाल
पंखे से हवा कर रहा है आँच को
कि जल्दी लहक जाए चूल्हा
और बुझ जाए जठर की आग उसकी आज के दिन
सिग्नल हो चुका है ट्रेन का..! 

2.

लिपटा सोया है शहर
सफेद दुधिया चादर में कुहासे की
सामने का घर भी नहीं दीखता
सडकें, पेड, मकान और बादल सब मिल कर हो गये हैं एक
कि अल्लसुबह पेपर वाला देता अख़बार फेंक
बालकनी में
लहरा के अपने हाथ एक साइकिल पर सवार होकर
गुजरते कॉलोनी की हर गलियों से
आगाह करता, ठंढ बहुत है
ख़बरें छपी हैं मौत की
शीत लहर से लोगों की... 

3


घने कोहरे के बीच
स्टेशन पर बैठे इक्के-दुक्के सिकुडे लोग  
चरखी बन पेट में पैर और मुँह घुसाए चन्द कुत्ते
कल ही बर्फ गिरी थी बारिश में
लोग दुबके हुए हैं
अपने-अपने मकानों में
ठंढ से बेखबर
खेल रहे हैं बच्चे
पुआल की ढेर पर
मुँह से भाप निकालते और कहते
देखो मैंने बढा दिया है कोहरा आसमान में.... 




Friday, January 3, 2014

उजडी हवेली



माँ के कहने पर बरसों बाद आया था गाँव
देखने अपने पुरखों के मकान और बुज़ुर्गों की ज़मीनें 
खडा एक-टक देख रहा था गाँव का वह मकान
जहाँ रौनकें हुआ करती थी कभी

पर अब हैं झडते प्लास्टर, चटकी दीवारें,
टूटे हुए छज्जे और उखडे हुए खिडकी के पल्ले
दरारों से निकलते बरगद और पीपल के पौधे

जंग लगे पुराने ताले को खोल कर
दाखिल हुआ अपने पुश्तैनी मकान में 
कबूतरों के बीट से पटा हुआ था फर्श
और अर्श पर उलटे लटके मिले थे कुछ चमगादड 
मकडों के जाले हटाते मैं पहुँचा आँगन में
जहाँ मंडप बने थे कभी
और हुई थी शादियाँ बुआओं की
और मेरा यज्ञोपवीत संस्कार

मत रो माँ... क्या हुआ जो उजड गया इक रैन बसेरा
खुश रहो कि अब यहाँ परिन्दों ने डाल रखा है डेरा


01.01.2014 

Wednesday, January 1, 2014

ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ

2.      

ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था जैसा फिल्मों में अक्सर होता है
न ही किसी अस्पताल के मेट्रन ने डॉक्टर से पूछा था
कि वह कब अच्छा हो जाएगा...
न ही कोई डॉक्टर सर झुकाए ओ.टी. से बाहर निकला था
और न ही किसी डॉक्टर के चेहरे पर चिंता की रेखा उभरी थी

बस एक शाम एक डॉक्टर आया था 
और निकाल दी थी उसने
नसों में चढते पानी की सूई
कि चलते फिरते लहू में ही
चढते पानी की रवानी है  
क्यों यह पानी ज़ाया हो
जब रगों में दौडते-फिरते लहू ने 
बन्द कर दिया हो चलना
और उखड गई हों साँसें उसकी

 (बाबूजी की मृत्यु पर)

ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ

1
ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था जैसा फिल्मों में होता है
न फोटो गिरा, न दीया बुझा
न लौ ही थरथराई थी आँगन में
न ही किसी परिन्दे के उडने की फडफडाहट
देर तक गूँजी थी कानों में
न ही चौंक कर जागी थी वह
न ही दिल उसका धडका था

रोज़ की तरह सूरज भी ढला था वक्त पर ही
और साँझ घिर आई थी हौले-हौले
दरवाज़े पर दस्तक की आस संजोए
चूल्हे पर चाय की केटली रख
किसी पत्रिका के पन्ने पलटते
देख लेती थी बीच बीच में वह
टिक-टिक करती घडी की सूइयाँ 
रोज़ की ही तरह

कि एक लमहे का पाँव फिसला था
और सो गई थी ज़िन्दगी
वक्त के पहिए तले
गुमसुम ...चुपचाप
और एक दुनिया उजडी थी

(22 दिसम्बर को जीजाजी की याद में )