Friday, June 29, 2012

बात


बात बहुत पुरानी हो गई
इतनी पुरानी कि
याद नहीं कि क्या बात थी..
बस याद है
अभी मैं जिस दोराहे पर खडा हूँ
वहीं हम मिले थे कभी
वह उत्तर वाली सडक से आई थी
और मैं दक्षिण
हम मिले
बातें हुईं
फिर मिलने का सिलसिला निकला
बात से ही बात निकलती है
और बात से ही बात बढती है
बात निकली
फिर बात बढी
इतनी बढी कि
एक छोटी सी बात बडी हो गई
बात के बढने से
हमारे दरम्यान फासले बढे
कुछ उसने कहा
कुछ मैंने
मैंने अपनी सफाई में एक बात कही
उसने दो-चार
मैंने उसे खतावार ठहराया
उसने मुझे
बात खत्म करने के लिए
हमने रिश्ते खत्म करना मुनासिब समझा
आज इसी दोराहे पर खडा मैंने देखा
दोनों रास्तों से अलग
एक पगडंडी निकल आई है
शायद मेरी ही तरह किसी और ने
बात खत्म करने के लिए
तीसरा रास्ता चुना होगा
पगडंडी बना ली होगी
रिश्ते बचा लिए होंगे
मैं पगडंडियों पर चलने लगा
चलते-चलते दोराहे को देखता हूँ
वही रास्ते जिनपर अलग-अलग हम आए थे
और फिर जुदा हो गए
फिर सोचता हूँ
आखिर बात क्या थी
मुझे याद नहीं
सिर्फ इतना याद है
बात बहुत छोटी थी...

Friday, June 15, 2012

पाँच सितारा अस्पताल



वह अस्पताल अस्पताल नहीं
एक पाँच सितारा होटल था

जगमगाती लाइटें, चमचमाती फर्श
हर कदम पर सिक्यूरिटी और मुस्कुराती नर्स
एक मरीज पर एक अटेंडेंट से ज्यादा नहीं
मरीज के बारे में चिंता करने से कोई फायदा नहीँ
मरीज को करिए डॉक्टरों के हवाले
फिर कमरे में बैठ टी.वी. का मज़ा लें

एक दिन मेरी पत्नी यहाँ भर्ती थी
कई बीमारियाँ सुन हिल गई मेरी धरती थी
डॉक्टरों ने कहा, सर्जरी का केस है
जो भी हो, करना मुझे फेस है
कर दिया भर्ती उन्हें जान इतनी सस्ती न थी
फिर तीन दिनों तक एक कमरे में मेरी मस्ती रही
मिलने वाले भी यदा-कदा आते रहे
खाने की चीजें भी सिक्यूरिटी से छुपा लाते रहे
रूम सर्विस से भी मैं चीजें मँगाता रहा
जी भर कर चिकन तन्दूर भी खाता रहा
पत्नी को स्वस्थ कर उन्होंने घर जाने दिया
पर जाने के पहले मेरे हाथ में एक पुर्जा दिया
तीन दिनों का यह तीन लाख का बिल था
बिल देख कर हिल गया मेरा दिल था
कार्यालय ने कुछ भरपाई की वरना मैं कहाँ इस काबिल था
बाकी चुपचाप मैं सह गया यह मेरा ही दिल था



Thursday, June 14, 2012

ओवरब्रिज


मेरे घर के आगे जो रस्ता था
वह एक मोड से
रेलवे क्रॉसिंग की ओर मुड जाता था

वह मोड महज एक मोड न था
जहाँ से राहगीर रेलवे लाइन के उस पार जाते थे
वह मोड एक पडाव था
एक ठहराव था
उसी मोड पर ही तो वो गुलमोहर का पेड था
जिसकी शाखों पर अनगिनत
चिडियों के बसेरे थे
मोड की दूसरी तरफ ही वह घर था

न जाने कितनी बार उसी मोड पर
आते जाते मैं रुका हूँगा
उस वक्त
जब उस घर के दूसरे माले पर
एक दरीचा खुलता था
और कितनी गौरेया उस दरीचे
से उस घर में बेहिचक आती-जाती थीं
और मैं सोचा करता
काश!! मैं भी एक गौरेया होता.....

राहगीर रेलवे लाइन क्रॉस करने के लिए मोड से मुडते
मैं मोड पर रुका रहता
पेड के नीचे चिडियों की चहचहाट सुनता
देखता..
सामने वाले घर के उस माले से
एक खिडकी खुलती
एक अक्स उभरता
न जाने कितने लोग उस मोड से गुजरते
पर मेरे लिए उस मोड पर जिन्दगी ठहरी मिलती
मानो मोड ने ही मेरे पैर जकड लिए हों....
उस ठहराव में
कितना सुकून था
आराम था
ख्वाब थे
उम्मीद थी..

उम्र की रफ्तार में
एक दिन वह मोड गुम हो गया
रेलवे क्रॉसिंग के ऊपर से गुजरते हुए
एक ओवरब्रिज के कंक्रीट के मोटे-मोटे पाए में
और वह पेड भी

मोड के सामने वाला घर अब भी वहीं है
पर दूसरे माले की उस खिडकी के ठीक सामने से
गुजरता है
वह ओवरब्रिज
जिसपर दौडती फिरती हैं गाडियाँ और
रात के सन्नाटे को चीरती हैं लौरियाँ
पर अब गुम है वह मोड
वह पेड
और गौरेया

मोड के गुम होते ही
पेड के गुम होते ही
गौरैया के गुम होते ही
बन्द हैं अब खिडकियाँ ...
और मैं भी वक्त की रफ्तार में
ओवरब्रिज आनन-फानन पार कर लेता हूँ....

पर मुड जाती है मेरी गर्दन
उस बन्द खिडकी की तरफ
आते-जाते उस ओवरब्रिज से
मोड पर उस पुरसुकून ठहराव की याद में....!!

Sunday, June 10, 2012

समय समय का फेर..


जब मैं नाना के घर रहता था
तो रौनकें होती थीं घर में
न जाने कितने लोग आते थे,
रहते थे
रेला था
एक मेला था
मामा-मामी
छोटका नाना-नानी
मौसा-मौसी
भाई-बहने
मस्ती के थे क्या कहने
गाँव से आता तीमारदार
गर पडता कोई बीमार

दादा के घर भी
क्या खूब मजे थे
हमारे सपने वहीं तो सजे थे
चाचा-चाची
फूफा-फूफी
भाई-बहने
सुख-दुख थे मिल-जुल कर सहने
खेतों की पैदावार
घर लाते बंटाईदार...

अब मैं भी किसी का नाना हूँ
और किसी का दादा भी
फिर क्यूँ मैं इतना तन्हा हूँ
दीवारों को तकता हूँ
रस्ता देखा करता हूँ
बाट निहारा करता हूँ
आहें भरता रहता हूँ
मैं भी किसी का नाना हूँ
मैं भी किसी का दादा हूँ
फिर क्यूँ मैं इतना तन्हा हूँ ...???

रस्ता वही, मंजिल वही...राही बदल गए


बरसों बाद उस शहर में गया
जहाँ कभी बचपन गुजरा था,
देखा,
शहर वही,
गलियाँ वही
सडकों पर बहती
नालियाँ वही
गली के मुहाने पर लकडी का टांड वही
चापाकल वही
बर्तन-तसले की कतारें वही
मोहल्ले की भीड वही
बिजली का खम्भा वही
तारों का जाल वही,
लग्घी लगा कर पोल से खिंचा
घर की ओर तार वही.
शायद कभी बिजली आ जाए
की उम्मीद वही
घर के दालान में
बिछी खटिया वही
जेठ की दुपहरी में
देह उघारे, पंखा झलते लोग वही
शाम को चौक पर भीड वही,
पान की दूकान वही
जमघट वही,
भर मुँह पीक रख बतियाते और
मोहल्ले के सिनेमा हॉल
में पोस्टर देखते लोग वही
घर के अन्दर सीलन वही,
गुमसाइन महक वही
सब कुछ वही
केवल बदली है पीढी
लछुमन चौरसिया के पान की दुकान पर
चाचा की जगह
अब जाने लगा है मेरा चचेरा भाई और
लछुमन की जगह
ले ली है
उसके बेटे ने...!!

Saturday, June 9, 2012

क़िताबें


किताबें खरीद कर पढने के शौक का
बदलते वक्त के साथ यूँ चले जाना
जैसे
अपार्टमेंट में एकल परिवार से बुज़ुर्गों का चले जाना
या
किसी बंद कमरे में रोशनदान का न होना
 
किताबें जो पहले सजी होती थीं बुक शेल्फ में
क़ैद हैं अब कम्प्यूटर में
पीडीएफ फाइल में
ई-बुक के रूप में
या फिर पेन ड्राइव में....

आइ.पी या मेल के जरिए किताबों का
दोस्तों में आदान-प्रदान होता तो है
पर बंद किताबों में रखे सूखे हुए फूलों की खुशबू
जो बीस-पचीस साल बाद भी आँखें नम कर देती हैं
या किताबों के पहले पन्ने पर बाप-दादा की लिखावट
ढूँढती फिरती हैं अब निगाहें

माफ करना मेरे कम्प्यूटर भाई,
तुम्हें अपनी छाती पर रख मैं पढ नहीं सकता
और मेरे पेन ड्राइव भाई...
भले ही तुमने अपनी छोटी डिबिया में
महाभारत समेटने की क्षमता हासिल कर ली है, पर
वो भाई-बहनों और दोस्तों को जन्मदिन पर
किताबें तोहफे देना,
उनपर बडी तन्मयता से
ब्राउन पेपर या प्लास्टिक से
ज़िल्दें लगाना....
सोते वक्त लेटे-लेटे पढना
और पढते-पढते
अपनी छाती पर रख सो जाना
हथेलियों से दबी किताब को
माँ का
बडे ही जतन से
धीरे से निकाल लेना
और सबेरे आँख खुलने पर
किताब का सिरहाने पाना.....

किसी पन्ने को किसी की याद पर मोड देना
या कॉलेज में किसी से टकराने पर जानबू कर गिरा देना...
क्या इन अहसासों का सुख दे पाने की क्षमता तुमने हासिल की?
एम बी और जीबी के दायरे में सिमटे
तुमने दिमागी उपलब्धियाँ तो जरूर हासिल कीं
पर हृदय की भाषा
तुम क्या समझो
और दिल का धडकना
क्या जानो....!!