Wednesday, September 28, 2011

दादाजी की हवेली और बडकी चाची


दादाजी की हवेली
जिसमें थे भंडारघर, कुलदेवता का घर और
बारह कमरे
रहती जिसमें चाची,फुआ,दादी
छोटका बाबा, फूफा, बाबूजी-माँ
और भाई चचेरे

रेडियो वाला कमरा दादाजी का
और एक कोने में चौका
दूसरे कोने में सीढीघर
सीढीघर से सटे शौचालय और
उससे सटे स्नान-घर
बारी-बारी जाते सब
जिसको मिलता जैसा मौका

बीच में आँगन
और आँगन में था एक तुलसी चौरा
दादी अक्सर वहीं जमाए
रहती अपना डेरा
एक कोने में चापाकल
जहाँ होता कोलाहल
पर जीवन बदरंग नहीं था
हर्ष, उल्लास और उमंग था

बाहर के बरामदे में
एक बडी सी आरामकुर्सी
जिसपर पसरते दादाजी
देखते आते-जाते लोगों को
उनके अभिवादन का जवाब देते
कुशलक्षेम पूछते
अखबार पढते
बच्चों के साथ लूडो या कैरम भी खेलते
दिन भर लोगों का जमावडा होता,
सब पूछते उनकी राय
बीच-बीच में घर की बहुएँ भेजती रहतीं चाय

सबेरे दादी के चापाकल चलाने की आवाज से
धीरे-धीरे हर कमरे के खुलते दरवाजे
अलसाती,जम्हाई लेती निकलती
चाचियाँ, फूफियाँ पाँच बजे
देर से निकलते चाचा और फूफा
झेंप मिटाते, कहते
मैं तो तडके ही जग गया था
फिर अपने-अपने कमरे के सामने
ड्योढी में बैठ
मोटे पीतल के गिलास में
चाय सुडकते
मसखरी करते
बतकही करते
खाने का मेनु तय करते
बाहर बैठे दादाजी को प्रणाम करते
और अपने-अपने काम पर चले जाते


शाम को आने पर फिर सब इकट्ठे होते
चाय पीते,
फिर रात घिर आती
यह जानते हुए भी कि
बिजली नहीं आने वाली,
बिजली की प्रतीक्षा करते
आँगन में जमा होते
दरियाँ बिछतीं
लालटेन की मद्धिम रोशनी में
फूफा गाना गाते
फिर वे बडकी चाची से गाने की जिद करते
दादाजी भी मानते
वह बहुत सुरीली है
खूब मीठा गाती
मैं माँ की गोद में लेटा-लेटा
आकाश में छिटके तारे देखता और
बडकी चाची का गाना सुनते-सुनते सो जाता
उस रात मेरे सपने में
कोई परी आती
जिसकी शक्ल मेरी चाची से मिलती

आँगन के बीचो-बीच एक नीम का पेड उग आया था
मैं अक्सर सोचा करता
एक दिन यह पेड बहुत बडा हो जाएगा
फिर मैं उसकी फुनगियों को
नहीं छू पाउँगा
मेरी दादी उसकी जडों में रोज पानी देती

एक दिन घनघोर विलाप हुआ
दादाजी को आँगन में लिटाया गया था
सफेद चादर में
हर कमरे से निकली चाचियों, फूफियों के करुण-क्रन्दन से
थर्रा गई थीं हवेली की दीवारें भी
मुझे सिर्फ इतना याद है कि
दादाजी का मुँह खुला हुआ था
जैसे वे अवाक हों कह रहे हों, यह क्या हो गया?

सिर्फ तीन महीने बाद ही
छोटका बाबा ने माँग की थी..
उनका कुनबा बडा हो गया है
उन्हें कुछ और कमरे चाहिए
उस दिन बडकी चाची ने खाना नहीं खाया

दादाजी का रेडियो-घर उनका हुआ
उस दिन के बाद उस कमरे से रोज हमें
नए समाचार सुनने को मिलने लगे
और एक दिन आँगन में इक दीवार उठी
कमरे के साथ कई चीजें बँटी
तुलसी का चौरा और चापाकल उनकी तरफ
और कुलदेवता का कमरा दूसरी तरफ
आठ कमरे उनकी तरफ और चार दूसरी तरफ
धूप और छाँव बँटे
चाँद और सितारे भी बँटे
हमारे कई सपने घटे
दादाजी की कुर्सी, छडी, और न जाने कितनी चीजें उस तरफ
उनके होने का अहसास इस तरफ
नीम का पेड उस तरफ
डालियाँ इस तरफ
चाची उस तरफ
कानों में उनकी सुरीली तान की गूँज इस तरफ

बरस बीते
उन आठ कमरों का हिसाब तो मुझे नहीं मालूम
पर इस तरफ के चार कमरे भी घट कर एक हो गए
फिर आंगन में दीवार उठी थी..
फिर चाँद-सितारों का बटवारा हुआ था


उन्हीं कमरों की तलाश में मैं
अपने बेटे के साथ उस ड्योढी पर हूँ खडा
जहाँ कभी लोगों का होता था जमावडा

दालान का पता नहीं
हवेली कब की मिट चुकी
घर कमरों में तब्दील मिली
छोटका बाबा, दोनों दादियाँ और पिता जी
तो मेरे होशो-हवास में गुजरे
पर चाचा और फूफा की तस्वीर भी टंगी मिलीं

किसी कमरे से खाँसती हुई निकली बडकी चाची
मुझे देखते ही बोलीं, बउआ जी
उस रात बँटे हुए आँगन के एक छोटे से हिस्से में
तारों भरे आकाश के नीचे
भरभराई आवाज में चाची ने एक गीत सुनाया
मेरे मुन्ने को सुलाने के लिए
और देखते देखते वह सो गया

लौटने पर उसने अपनी तोतली आवाज में
कहा,
रात उसके सपने में एक परी आई थी..
जिसकी शक्ल बिल्कुल मेरी चाची जैसी थी...


Thursday, September 22, 2011

आँकडे झूठ नहीं बोलते


आँकडे झूठ नहीं बोलते
आँकडे बताते हैं कि लोगों की
आर्थिक स्थिति में हो रहा है सुधार
इसलिए आँकडों से खुश है सरकार

आँकडे सजे होते हैं पावर-प्वाइंट प्रेजेंटेशन में
दिखाए जाते हैं मीटिंग में
वातानुकूलित सभागारों में
छपते हैं अखबारों में
जिसे पढते हैं नेता
अध्यापक और पूरी जनता
जिसे रटते हैं शोधार्थी
लिखते हैं परीक्षा में विद्यार्थी
इसलिए वे झूठ नहीं लगतेç
सत्य प्रतीत होते

मैंने भी कल ही अखबारों में पढा
कारों की बिक्री के सम्बन्ध में इक आँकडा
औरंगाबाद में कारों की बिक्री में सर्वाधिक इजाफा हुआ
एक ही मास में एक कार डीलर को अच्छा मुनाफा हुआ
आंकडे थे कि कितने लोगों ने खरीदी गाडियाँ बडी
किसने खरीदी मर्सीडीज और किसके दरवाजे बीएमडब्ल्यू खडी
व्यापारियों ने एक मुश्त 65 करोड की कुल 150 मर्सीडीज खरीदीं
पर नहीं दिखी किसी को उसी कस्बे के किसानों की नाउम्मीदी

हाँ..मंगरू ही उसका नाम था
कर्ज में डूबा एक किसान था
कल ही तो गया था वह
बैंक की इक शाखा में
दिन भर दरवाजे पर खडा रहा
और रात में ही चल बसा

चाहिए थे उसे कुछ रूपए महाजन को देने के लिए
और कुछ उस बनिए की पिछली उधारी के लिए
बनिए ने आगे का राशन देना रोका था
मंगरू परिवार-संग कई दिनों से भूखा था
रूपए मिलते तो लेता थोडा आटा और दाल
कुछ दिनों के लिए सही, शायद सुधरता उसका हाल
पर रोटी उसे नसीब न थी
और न ही उसकी दाल गली
कर्ज के बोझ से बेहतर
मौत ही अच्छी लगी
मर गया वह मन में ही लिए इक लालसा
उसका मरना था लोगों की नजर में हादसा
इसलिए उसकी गरीबी का नहीं कुछ जिक्र है
अखबारों को भी नहीं ऐसे लोगों की फिक्र है
न वह आंकडों में शामिल हुआ
न ही उसे कुछ हासिल हुआ
न वह छपा अखबारों में
न ही चर्चा हुई सभागारों में
आंकडे कहते हैं कि हम प्रगति कर रहे
इसलिए यह झूठ है कि किसान मर रहे

सच है कि आँकडे होते हैं सच के करीब
मंगरू अगर मर गया तो यह है उसका नसीब

Thursday, September 15, 2011

आकाश



बाहर फैला इक आकाश 
मेरे भीतर भी आकाश
बाहर कितनी नीरवता है
मेरे भीतर सन्नाटा है
बाहर उडते कुछ बगुले हैं
मेरे भीतर इक चिडिया है
बाहर खग मस्ती में गाते, फैला है उल्लास
मेरी चिडिया बन्द कमरे में रहती बडी उदास

बाहर बादल रंग-बिरंगे
मेरे भीतर काला रंग है
बाहर सूरज अजर-अमर है
मेरे भीतर तम का घर है
हे ईश्वर तुम परत हटाओ
कोई ऐसी जोत जलाओ
तम के इस गहरे गह्वर में, फैला दो प्रकाश
बरसों से मैं भटक रहा, मेरा सूना है आकाश

बाहर भीतर जब मिल जाएँ
जनम-मरण से मुक्ति पाएँ
सुख दुख का बंधन फिर छूटेçþ
मोह-पाश की गाँठे टूटे
बाहर भीतर मिल जाने परþ
कितना सीमित है आकाश
फिर बाहर चिडिया उडने को करती नहीं प्रयास
मस्ती में कहती फिरती है सुन्दर है आकाश


धूप में निकलो


 

मैं हूँ तो रोशनी है इस जग में
मैं हूँ तो जिन्दगी है पग-पग में
उर में धधकती हुई ज्वाला
कर में लिए अमृत प्याला
नीलकण्ठ की तरह विषपान कर
प्राणियों में जीवनदान कर
फूल खिलते हैं मुझे ही देखकर
कैद से फिर छूटते भँवरे के पर
हर तरफ गूँजे पक्षियों के मधुर स्वर
खेत को भागे कृषक और जानवर
बीज बोए बाग होते हैं हरे
रंग बादलों में मैंने ही भरे
अब्र बनते हैं मुझसे ही घने
सब काम पर जाते भले हों अनमने
है वही इंसान अनुभव का धनी
जिसके तंबई तन पसीनों में सने





सफर में धूप तो होगी

1
 
सफर में कडी धूप का बहाना छोडो
जो चल सको तो चलो मुँह न मोडोç
चलोगे साथ तो रास्ता खुद-ब-खुद कट जाएगा
धूप से हिफाजत का भी कोई वास्ता बन जाएगा
कहीं पेडों के साए मिल ही जायेंगे तो कहीं बादल
कहीं ताल-तलैया भी मिलेंगे तो कहीं झील में कमल
कुछ न होगा तो रहेगी मेरी पलकों की छाँव
फिर न चुभेगी ये कडी धूप न दुखेगा पाँव
मेरे माथे पर तेरे आँचल का साया होगा
तेरे माथे पर मेरी बाँहों का घेरा होगा
कितना आसान फिर यह रास्ता हो जाएगा
हमसफर हमदर्द बन आँखों में बस जाएगा
मुद्दतों बाद फिर आँखों में नमी आएगी
धूप भी थक-हार कर शाम को ढल जाएगी

Tuesday, September 13, 2011

बाबूजी और मैं


जब भी सुनता हूँ कि
औलाद को पिता से आगे निकलना चाहिए
दिल पर एक आरी सी चलती है


लोग कहते हैं कि मैं अपने पिता से आगे चल रहा हूँ

वे  पैदल चलते थे,
मेरे पास कार
उनकी आवश्यकताएँ सीमित,
मेरी चाहतें बेशुमार
उनके पास दो जोडी धोती
तो मेरी वार्ड-रोब भरी होती
उनके पास एक जोडी चप्पल और एक जोडे जूते
मेरे पास न जाने कितने होते


लोग कहते कि मैँ अपने पिता से आगे चल रहा हूँ

उनकी तनख्वाह दो हजार
मेरे शेयर मेँ इंवेस्ट
उनकी जमापूँजी हम दो भाई
मेरे कई एसेट्स
वे शनिवार हनुमान मंदिर जाते
मैँ पिक्चर या क्लब
वे चिंतन मनन करते
मैँ दोस्तों से गप-शप

लोग कहते कि मैँ अपने पिता से आगे चल रहा हूँ

उनकी तनख्वाह कम, निर्भर दस
फिर भी रहते सब संतुष्ट
मेरी तनख्वाह अधिक, निर्भर दो
फिर भी हैं सब रुष्ट