Tuesday, February 24, 2015

बेमौसम बरसात




बिल्कुल उस घर के तीसरे माले की खिडकी के सामने से ही
लहरा कर गुजरता था वो 
जैसे उछल कर छूना चाहता हो चाँद कोई
उतर जाता था दूसरी तरफ
फिर धीरे धीरे
ससरता हुआ
खाली हाथ  

नीचे से गुजरती थी ट्रेनें
और ऊपर से मैं
करीब करीब रोज़ाना
उस खिडकी से झाँकता था इक चाँद
अक्सर शाम ढलने पर

अरसा हो गया इस बात को
कल मुद्दत बाद उस पुल से गुजरते वक्त
गर्दन घूम गई थी उस घर की तरफ 
बेख़याली में
अचानक ही
कि होने लगी बारिश
वाइपर तेज कर दी थी मैंने

यह तो सूखी सडक पर पाँव पडने से मालूम हुआ
बरसात आँखों में थी

  


Saturday, February 21, 2015

मरीचिका

ज़िन्दगी की उदास राहों में
सहरा ही सहरा था
तेज धूप में   
कुछ दूर पर ही दिखी थी तुम

तब से चला जा रहा हूँ मैं
उस चिलचिलाती धूप में
इस उम्मीद के साथ 
प्यास बुझ जाए मेरी
और मिल जाओ कभी  
सूखे होंठों पर
ओस की बूँद की तरह...!!



Monday, February 16, 2015

ताछोड़ो....

ताचड़ो’ बोलता था वह
और हम समझते थे ‘ताछोड़ो’
न वह सही बोलता था
न हम ठीक समझ पाते थे

घर के बगल वाली ज़मीन पर ही था वह ताड़ का पेड़
जिसपर कहीं से कटी हुई पतंगे आकर फँसती थीं
हज़ार कोशिशें होती थीं उसे उतारने के लिए
तब हमें इंतज़ार होता था उस पासी का
जो पाँव में रस्सी फँसा, कमर में हँसिया, पीछे हँडिया लटकाए
चढ़ जाता था उस ऊँचे ताड़ पर तेजी से

खेल था उसके बाएँ हाथ का 
इतने ऊँचे पेड़ पर चढ़ना

चढ़ने के पहले
एक कर्कश आवाज फूटती थी उसके गले से
“ताचड़ो.....” यानी “ताड़ चढ़ो”  
बिना टेर लगाए भी चढ़ सकता था वह ताड़ पर
पर एक तहजीब निभाता था वह
अगल बगल के मकानों में उस ऊँचाई से
ताक झाँक करने का आरोप लग न जाए कहीं
आगाह कर देता था अपनी टेर से

उसकी गगनभेदी आवाज़ सुन हम दौड़ आते थे
उससे हफ्ते पहले की फँसी हुई पतंग उतारने के लिए कहते थे
वह ऊपर पहुँच कर
हँसिया से न जाने क्या-क्या काटता-छीलता था
फिर उतारता था पिछले हफ्ते की रस से भरी हड़िया
और टाँग देता था उसकी जगह नई
उतरने के पहले हँसिया से काट देता था वह
पतंग के उलझे धागों को
हिचकोले खाने लगती थी कटी-फटी पतंग इधर-उधर
बच्चे भागते थे पतंग के पीछे और
हम देखते थे उसे नीचे उतरते
सरसराते हुए
ख्वाहिश होती थी हमें भी
उस पेड़ पर चढ़ कर चाँद छूने की 

एक दिन उस जमीन के चारों तरफ बाउंड्री बनी
और फिर एक बड़ा सा मकान
कट गया ताड़ का पेड़
छोड़ दिया पासी ने वह रिहाइशी इलाका
सच हो गया हमारा समझना “ताड़ छोड़ो”  

पतंगों ने भी ढूँढ लिया अपना आशियाँ
टीवी एंटीना पर 
और चाँद जो ताड़ से झाँकता था अक्सर
चढ़ गया आसमाँ में और ऊपर
दफ़्न हो गई हमारी ख़्वाहिश
चाँद छूने की
उसके बाद..

    

Saturday, February 14, 2015

मेरी वैलेंटाइन


मेरी पहली वैलेंटाइन थी इतिहास की एक छात्रा
बहुत बाद में पता चला कि उसमें प्रेम की नहीं मात्रा
पुरानी घटनाओं के साथ जोडती थी वह यादों को
अनसुनी कर दिया करती थी मेरी फरियादों को

बरसों बाद मिली जब वह तो मैंने पूछा,
याद है? पहली बार हम कब मिले थे
उसने कहा, ‘ हाँ! जब भारत पर हमले हुए थे
याद है? हम प्यार के रंग में भी रंगे थे
हाँ, जब इराक पर बम गिरे थे
अरे, छोडो भी, याद करो, हमारी धडकनें बढी थी
याद है, जब दिल्ली में भगदड मची थी
कब फैले थे हमारे प्रेम के लत्तर
कहा उसने, ‘सन उन्नीस सौ बहत्तर
धत.तेरे की... मैंने साल थोडे ही न पूछा था
मैं सुनना चाहता था, जब मैंने तुम्हें छुआ था

अहसास को तारीखों से जोडना उसकी आदत थी
उसके संग जिन्दगी के माएने शहादत थी
रिश्ते को उसने घटनाओं से जोड रखा था
इसलिए ज़िन्दगी ने उसको छोड रखा था
इतिहास की वह छात्रा खुद इतिहास बन कर रह गई
और मुझे इतिहास से कुछ सीख लेने को कह गई

फिर आई मेरी ज़िन्दगी में राजनीतिशास्त्र की इक छात्रा
राजनीति की भावना से था उसका दिल कूट कूट कर भरा
फूट डालो राज करो सिद्धांत मानती थी वह
अपना मतलब साधने की हर कला जानती थी वह
प्रेम की भावना फिर दिल के अन्दर मर गई
जब हमारे रिश्तों में भी वह राजनीति कर गई

पर जीवन का सफर यूँ ही तनहा नहीं कटता
कोई न कोई दिल में कभी आ ही बसता
आई मेरी ज़िन्दगी में फिर लक्ष्मी पिछले बरस
जिसको देखने को मेरी आँखें गई थीं तरस
पर करती हर वक्त वह धन की ही बात
मानती धन को ही जीवन की सबसे बडी सौगात 
ख़तों में भी होते पैसों का अक्सर ज़िक्र
रिश्तों की मिठास की नहीं करती कभी फिक्र
रहता था मेरा भी हाथ कुछ तंग सा
इसलिए जीवन हो गया बेरंग सा
प्यार की भावना उसमें थी नाममात्र की
हाँ, वह विद्यार्थी थी अर्थशास्त्र की

इस तरह ढूँढा किया मैंने ऐसे विषय की छात्रा
जिसने अपनी ज़िन्दगी में प्रेम भी हो कुछ पढा
सोचा किया मिल जाए रसायन शास्त्र की कोई छात्रा
जिसकी बातों मे शायद मिले रस के आयन की मात्रा

ऐसा नहीं कि यह केवल लडकियों की ही बात है
नीरसता दिखाने में अव्वल पुरुषों की भी जात है
एक लडकी जानता हूँ मैं हिन्दी जिसने है पढी
प्रकृति की खूबसूरती देखकर ही है बढी
सुहागरात में देखा उसने खिडकी के बाहर चाँद
बोली चहक कर पति से देखिए कितना सुन्दर चाँद
पति आया पास अपने चाँद को खुजलाते हुए
देख कर खिडकी के बाहर, बोला थोडा झुँझलाते हुए
भाग्यवान, इस चाँद में ऐसी कौन सी नई बात है
चाँद तो रोज़ ही निकलता रहता है हर रात में
वह बोली, ‘कभी पेडों के झुरमुट से झाँकता
तो कभी बदली में छुप जाता है;
इन अदाओं से क्या यह आपके हृदय में
प्रेम की हिलोरें पैदा नहीं कर जाता है
पति बोला, व्यर्थ की बातों में मत उलझते जाइए
खिडकी बन्द कीजिए और जल्द ही सो जाइए..!!