Monday, January 19, 2015

लिबास

2.

इक लिबास पहनता हूँ मैं हाकिम का
डाँटता फटकारता हूँ अपने मातहत को
रूह को होती है जिससे तकलीफ

इक लिबास मातहत का भी होता है
जो हुक्म बजाता है अपने हाकिम का
हाथ बाँधे खडा होता है उनके सामने
जो खोलता है अपनी ज़ुबान बडे एहतियात के साथ
ऐसा करने में रुह का घुटता है दम

ओढे रहता हूँ फिर एक ऐसा लिबास
जिससे लोगों को भरम होता है
मेरी खुशमिजाजी का
सामना करता हूँ दिन भर 
सच के अनगिनत छींटे
पोंछता रहता हूँ जिसे
झूठ के रुमाल से

शाम को थका-हारा घर आने पर
उतार डालता हूँ दिन भर के पहने वे सारे लिबास
टाँग देता हूँ उन्हें उसी वार्डरोब में
या खूँटियों पर
कुछ यूँ ही रख देता हूँ पलंग के पाएताने भी
दूसरे दिन पहनने के लिए

बहुत शिद्दत से फिर ढूँढता हूँ इक ऐसा लिबास
जिसमें मैं मैं होता हूँ
दिखता तो है ऐसा लिबास
पर मुझे फिट नहीं हो पाता
दर्जी ने काफी टाइट सिला है इस लिबास को..

उदास सो जाता हूँ मुँह ढक कर
ओढ कर वही पुराना लिबास
तनहाई का 
याद आता है जिसमें
बचपन का वो लिबास
जो कई सालों तक माँ ने
संजो कर रक्खे थे इक सन्दूक में
जिसे कुछ ही साल पहले
बेचकर खरीदे गए थे कुछ बरतन
जो टकराते रहते हैं एक दूसरे से
बेवजह
बारहा....!!





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