Monday, January 19, 2015

मेरी रूह मेरी साँसें मेरी जान मेरा दम


मेरी रूह, मेरी साँसें,
मेरी जान, मेरा दम
एक हैं या मुख़्तलिफ,
यह सोचते हैं हम

क़ैद है इक घर में जाँ
जहाँ घुटता उसका दम
साँसों का इक हिसाब है
जो होता हर पल कम

जबतक घर में जाँ है,
रूह आदमी के साथ है
घर के बाहर आते ही
फिर खाली उसका हाथ है

जाँ के निकलते ही
फिर मौत का है गम
दम से ही जीवन का
लहराता है परचम

जान, दम और साँस से
ज़िन्दगी की आस है
ये नहीं तो रूह को
ख़ुदा की रहती तलाश है


जाडे का मौसम



लो फिर जाडे का मौसम दबे पाँव आने लगा
हर सुबह फिज़ाँ में कोहरा भी है छाने लगा

फिर ठंढ से ठिठुरेंगे लोग अपने गाँव में
मोज़े तो क्या चप्पल भी न होंगे पाँव में

फिर रातें कटेंगी उनकी अलाव तापते
और दिन गुजारेंगे वे ठंढ से काँपते

फटे कपडों में उनके दिन तो गुज़र जायेंगे
पर रात में ठंढ से शायद कुछ मर जायेंगे

जुम्मन मियाँ का बक़रा स्वेटर पहन इतरायेगा
मिस जूली का टॉमी भी गर्म कपडों में सुकूँ पायेगा

फिर बूढी अम्मा खाँस-खाँस कर रातों को जगाएगी
पिछले बरस तो बच गई पर इस बार गुज़र जाएगी

फिर ख़बरें शीतलहरी की छपेंगी हर अख़बारों में
ऐ ख़ुदा, ज़िन्दगी बक्श दे अम्मा की इन जाडों में

30.11.2014

लिबास

2.

इक लिबास पहनता हूँ मैं हाकिम का
डाँटता फटकारता हूँ अपने मातहत को
रूह को होती है जिससे तकलीफ

इक लिबास मातहत का भी होता है
जो हुक्म बजाता है अपने हाकिम का
हाथ बाँधे खडा होता है उनके सामने
जो खोलता है अपनी ज़ुबान बडे एहतियात के साथ
ऐसा करने में रुह का घुटता है दम

ओढे रहता हूँ फिर एक ऐसा लिबास
जिससे लोगों को भरम होता है
मेरी खुशमिजाजी का
सामना करता हूँ दिन भर 
सच के अनगिनत छींटे
पोंछता रहता हूँ जिसे
झूठ के रुमाल से

शाम को थका-हारा घर आने पर
उतार डालता हूँ दिन भर के पहने वे सारे लिबास
टाँग देता हूँ उन्हें उसी वार्डरोब में
या खूँटियों पर
कुछ यूँ ही रख देता हूँ पलंग के पाएताने भी
दूसरे दिन पहनने के लिए

बहुत शिद्दत से फिर ढूँढता हूँ इक ऐसा लिबास
जिसमें मैं मैं होता हूँ
दिखता तो है ऐसा लिबास
पर मुझे फिट नहीं हो पाता
दर्जी ने काफी टाइट सिला है इस लिबास को..

उदास सो जाता हूँ मुँह ढक कर
ओढ कर वही पुराना लिबास
तनहाई का 
याद आता है जिसमें
बचपन का वो लिबास
जो कई सालों तक माँ ने
संजो कर रक्खे थे इक सन्दूक में
जिसे कुछ ही साल पहले
बेचकर खरीदे गए थे कुछ बरतन
जो टकराते रहते हैं एक दूसरे से
बेवजह
बारहा....!!





Saturday, January 10, 2015

लिबास


रोज़ ऑफिस जाते वक्त जब वार्ड रोब खोलता हूँ
देखता हूँ
हैंगर में टँगे कपड़े
यूँ लगते हैं जैसे कोई देह 
अपना लिबास छोड़ निकल गई हो
या देह से रूह...
कोट यूँ दीखते हैं जैसे
निकल गया हो उसमें से सर अपनी गर्दन के साथ
और पैंट से ज्यूँ पैर कहीं

यूँ ही कुछ देर सर कटे कोट
और बिन पाँव की पैंट देखता हूँ
और फिर ख़ुद को... 
जो कहने के लिए वार्ड रोब के सामने नंगा खडा है
पर है वह भी इक लिबास में
अपनी रूह के लिए देह का लिबास पहने

बिन रूह की देह अच्छी नहीं दिखती
मैं झटपट कोट को अपनी गर्दन और
पैंट को पैर पहना कर
उस लिबास को एक रूह दे देता हूँ..   

इक लिबास के ऊपर दूसरा लिबास पहने
मैं ऑफिस चला जाता हूँ जहाँ
और न जाने कितने लिबास पहनने होते हैं मुझे...!!