Tuesday, January 24, 2012

परदेस में माँ की याद



दूर पहाडी के ऊपर जब पहले मेरा एक घर था
नीचे घाटी में फैला होता कोहरा अक्सर था

तनहा अपना जीवन था पर कुछ जो मेरे अपने थे
बादल, धूप, हवाएँ, पानी और मीठे से झरने थे

इन सबमें सबसे अपना बादल ही मुझको लगता था
दूर दिशाओं की खुशबू जो दामन भर कर लाता था

इक दिन दरवाज़े पर दस्तक से जो मेरी नींद खुली
बादल के कुछ टुकडे थे पर थोडी भी धूप नहीं

कुछ बादल कमरे में घुसे, कुछ छा गए मेरे आँगन में
रूई के फाहे जैसे बिछ गए मेरे मन के उपवन में

मैंने पूछा जब उनसे के क्या लाए अबकी सौगात
बादल बोला धीरे से मेरे कान में मेरी माँ की बात

उस दिन जाकर घाटी में बादल कुछ ऐसा बरसा था
माँ की आँखों का कुछ पानी बाकी मैं ही रोया था.






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