दूर पहाडी के ऊपर जब पहले मेरा एक घर था
नीचे घाटी में फैला होता कोहरा अक्सर था
तनहा अपना जीवन था पर कुछ जो मेरे अपने थे
बादल, धूप, हवाएँ, पानी और मीठे से झरने थे
इन सबमें सबसे अपना बादल ही मुझको लगता था
दूर दिशाओं की खुशबू जो दामन भर कर लाता था
इक दिन दरवाज़े पर दस्तक से जो मेरी नींद खुली
बादल के कुछ टुकडे थे पर थोडी भी धूप नहीं
कुछ बादल कमरे में घुसे, कुछ छा गए मेरे आँगन में
रूई के फाहे जैसे बिछ गए मेरे मन के उपवन में
मैंने पूछा जब उनसे के क्या लाए अबकी सौगात
बादल बोला धीरे से मेरे कान में मेरी माँ की बात
उस दिन जाकर घाटी में बादल कुछ ऐसा बरसा था
माँ की आँखों का कुछ पानी बाकी मैं ही रोया था.
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