Tuesday, January 24, 2012

शायद


(1) 
जब तुम थे तो यह घर एक घर था
जिसके दरवाजे अक्सर खुले रहते थे
और देर रात ही बन्द होते थे..
सुबह की धूप और ज़िन्दगी की हवा से
रौशन रहते थे मन के दीए
महकती थी रसोई, सिंकती थी रोटियाँ,
गर्म रहते चूल्हे, सजती थी क्रॉकरी,
सुबह के अखबार के साथ
चलते थे चाय के दौर,
हरिओमशरण के बजते थे भजन
दौडती-खिलखिलाती थी ज़िन्दगी.....

(2)

अब तुम नहीं तो यह घर घर कहाँ
बन्द दरवाज़े को किसी का इन्तज़ार नहीं
धूप तो अब भी खिलती है
पर दीयों में लौ कहाँ ?
बंद रसोई में तवे पर पडी अधपकी रोटियाँ
ठंढे चूल्हे और मुँह जोहती लोइयाँ,
बंद है अख़बार और बिखरी क्रॉकरीÝ,
टकराते बरतन और खिसकती घिसटती ज़िन्दगी.....

(3)

माँ ने टाँग रखी है
बीच कमरे में तुम्हारी एक तस्वीर
ताकि देख सको सच होते हुए
कभी तो अपने सपने
जो उसके संग कभी तुमने देखे थे.
माँ ने भी देखा था
कभी एक सपना,
जिसमें सारी धरती थी जलमग्न,
बह रही थी वह एक लकडी के सहारे,
इतने सालों बाद अब भी जब कभी
ज़िक्र होता है उस सपने का,
माँ बतलाती है, किनारा मिला था उसे,
डूबी नहीं थी वह
सँभल गई थी उसकी ज़िन्दगी......

(4)

अब वह बूढी हो चली है
ज़िन्दगी के तज़ुर्बे चिपक गए हैं उसके चेहरे से
झुर्रियों की शक्ल में
दस-बीस साँसें ही रह गई हैं उसके पास
पर आँखों में आशा की वही चमक
पचीस साल पहले देखे सपने को सच मानती है
कहती है, किनारे लगूँगी, डूबूँगी नहीं
फिर से मुस्कुराएगी और खिलखिलाएगी जिन्दगी.....
फिर देख सकेगी तुम्हारी तस्वीर
सजती हुई क्रॉकरी,
जलते हुए चूल्हे,
सिकती हुई रोटियाँ,
मुस्कुराते चेहरे,
रौशन दीए...
खिलती धूप,
जिन्दगी की हवा....
एक घर और बाहर की तरफ खुले घर के दरवाजे

(5)

शायद ऐसा हो
पर......
तब टँगी होगी
तुम्हारी बगल में
माँ की भी एक तस्वीर....


परदेस में माँ की याद



दूर पहाडी के ऊपर जब पहले मेरा एक घर था
नीचे घाटी में फैला होता कोहरा अक्सर था

तनहा अपना जीवन था पर कुछ जो मेरे अपने थे
बादल, धूप, हवाएँ, पानी और मीठे से झरने थे

इन सबमें सबसे अपना बादल ही मुझको लगता था
दूर दिशाओं की खुशबू जो दामन भर कर लाता था

इक दिन दरवाज़े पर दस्तक से जो मेरी नींद खुली
बादल के कुछ टुकडे थे पर थोडी भी धूप नहीं

कुछ बादल कमरे में घुसे, कुछ छा गए मेरे आँगन में
रूई के फाहे जैसे बिछ गए मेरे मन के उपवन में

मैंने पूछा जब उनसे के क्या लाए अबकी सौगात
बादल बोला धीरे से मेरे कान में मेरी माँ की बात

उस दिन जाकर घाटी में बादल कुछ ऐसा बरसा था
माँ की आँखों का कुछ पानी बाकी मैं ही रोया था.






Friday, January 20, 2012

विश्राम


एम्बुलेंस में रखा बाबूजी का निष्प्राण शरीर
उनकी लुढकी आँखों के साथ
बैठी माँ
और हम दोनों भाई
दुर्गम घाटी के सुनसान रास्तों पर
सरपट दौडती
सन्नाटे और अँधियारे की छाती को चीरती
एम्बुलेंस की नीली बत्ती
माहौल भयानक पर हम सब भयरहित,
सर्वस्व छिन जाने के बाद
अब कैसा भय?
गड्ढों में एम्बुलेंस के उछलने पर
शरीर के इधर-उधर लुढकने पर
बरबस उनके आराम की चिंता
और फिर एक मायूस हँसी...
चिर निद्रा में आराम ही आराम
और जीवन का पूर्ण विश्राम...



आस-निराश



(1)
अस्पताल के सामने के लॉज से
घबराते हुए निकलती
बदहवास सी
डगमगाती
बोझिल कदमों को जबरन
दौडाती
माँ....

फडफडाते होंठ,
राम-नाम की अनवरत जाप
व्योम में कुछ ढूँढती
पथरीली आँखों से
कुछ बूँदें
टपकाती
माँ.....

उसे ख़बर  मिल चुकी है
कि अब किसी भी क्षण उसका
सर्वस्व छिनने वाला है
अस्पताल के कॉरीडोर से मैं उसे देखता हूँ
मेरा रोम-रोम कहता है,
घबरा मत
मेरी दुखियारी
माँ......

अब से..
उसके कदम जहाँ पडेंगे
वहाँ पहले मेरी हथेली होगी
उसकी नींद के लिए
पहले  मेरी आँखें जगेंगी...
मेरे इन्हीं आश्वासनों पर
आँखों की बरसात
रोक डाली थी उसने
मेरी भोली
माँ....

(2)
पर उसे क्या पता था
उसने पानी का सोता ही
सुखा डाला
बहुत जरूरत पडने पर भी
खर्चने के लिए
अब उसके पास
एक बूँद भी नहीं
कितना कठिन है उन आश्वासनों को
एक-दो दिन से ज्यादा निभाना
हाय री, वह
बिचारी
माँ....



शब्द


शब्द मरहम सा होता है
कभी बरहम भी करता है

शब्द से त्राण मिलता है
कभी यह बाण होता है

शब्द को मंत्र कहते हैं
कभी षडयंत्र होता है

शब्द को ब्रह्म कहते हैं
कभी यह भ्रम भी होता है

शब्द फूल जैसे हों
पर अक्सर शूल होता है

शब्द शीतल भी करता है
आग में घी भी होता है

प्रेम में मौन रहता है
बोलना फिर गौण होता है