Wednesday, July 29, 2015

कलाम को सलाम

सपने हम पहले भी देखा करते थे
पर वे हमारे अपने कहाँ होते थे

दादाजी का सपना 
बडा होकर बनूँ मैं डॉक्टर
पिताजी का सपना
कि घर में होना चाहिए एक कलक्टर

उन सपनों की जडे नहीं थीं
पंख भी नहीं थे
जडें पनपी भी तो ज़मीं न थी
मिट्टी पकडने के लिए
ज़ंजीरों ने जकड रखा था पाँवों को
पंख फडफडाए भी तो धमनियों में रक्त नहीं था
कि पैदा हो परवाज़
और छू लें आसमान
उन सपनों के बोझ तले हम चलते रहे,
लुढकते रहे
घिसटते रहे

पर तभी उभरा
भारत के सुदूर तटवर्ती रामेश्वरम से  
एक ऐसा शख़्स
जिसके पास कहने को तो कुछ भी नहीं था
पर अनमोल ख़जाना का मालिक था वह
सपने वो भी देखता था
पर खुली आँखों से
गरीबी उसके लिए बाधक न थी,
साधक था वो,
गाँधी की तरह शरीर से नहीं,
मन से सशक्त था वह
जबीं पर लहराती ज़ुल्फों वाले इस शख़्स ने भी
हमें सपने दिखाए
ऊँची सोच के जादू की छडी उसने जैसे ही घुमाई    
उसके वे सपने
हो गए हमारे अपने

जब उसने कहा
As a young citizen of India,
Armed with technology,
knowledge
and love for my nation,
I realize,
small aim is a crime.
तो भारत के युवाओं को मिली
आत्मविश्वास की एक ठोस ज़मीं
और आसमान छू लेने की ताकत

कलाम तुम मरे नहीं
केवल शरीर छोडा है तुमने...!!  


 27.07.2015

सपनों में आना जाना


क्या तुम्हें यह ठीक लगता है कि
तकरीबन हर रात 
मेरे ख़्वाब के दरवाज़े पर आकर तुम
दस्तक दे देती हो
और मैं घबरा जाता हूँ
कि कहाँ बिठाऊँ तुम्हें
या दरवाज़े से ही विदा कर दूँ

एक अकेले के घर में वैसे ही
चीजों की कमी रहती है
न चाय पिलाने के लिए कोई
ढंग की प्याली ही है घर में
और न ही बिठाने के लिए कोई अच्छी कुर्सी, स्टूल या मोढा

पूरी रात इसी उधेडबुन में कट जाती है
कि खडे-खडे दरवाज़े पर ही बात करना
क्या अच्छा लगता होगा तुम्हें

मुझे भी तो बतला दो
कि क्या मैंने 
कभी परेशां किया है तुम्हें
ख़्वाबों या ख़यालों में
या मेरे ख्वाबों में तुम्हारा 
यूँ ही बेसबब रोज़ाना चले आना 
शुमार हो चुका है
तुम्हारी आदत में
  
मुझे तो पक्का यकीं है
गर मैं आऊँ घर तुम्हारे कभी
पलकों पर बिठाओगी मुझे
’फॉरमेलिटी’ में परीशाँ नहीं रहोगी सारी रात

गर यह सच है तो
फिर कल सपने में तुमने क्यों कहा था
के मैं न आऊँ कभी
तुम्हारे सपने में,,!!  

Tuesday, July 14, 2015

जीवन भूलने का एक लम्बा सिलसिला है.....

1..

बाहर जितना फैला आकाश
उतना ही
भीतर भी है मेरे आकाश

एक कम्प्यूटर की तरह
खुलते हैं कई ‘विंडोज’
अन्दर ही अन्दर मेरे मन में 
हर ‘विंडो’ के भीतर 
फैला होता है एक विस्तृत आकाश   
सूना-सूना,
तन्हा-तन्हा
परत दर परत जब खुलती हैं खिडकियाँ 
दिल की गहराईयों में
तो मिलता है हर ‘फोल्डर’
‘एम्प्टी’ ही... 

उन ‘फोल्डरों’ में कभी डाल रखे थे मैंने
किस्से और कहानियाँ,
दर्द के कुछ दास्तान
ज़ख़्मों के कुछ बासी निशान 
वक्त के साथ बडे ही एहतियात के साथ
‘डिलिट’ करता गया था
यादों के उन ‘जंक’ जमावडों को
कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था   
भूलने के सिवा..!!

2..

बाहर के आकाश में चमकते हैं 
चाँद और सूरज
चमकते हैं कई तारे
साथ निभाते हैं उसका
बादल और हवाएँ भी

कम्प्यूटर के नभ-डेस्कटॉप पर भी
चमकते हैं चाँद और सूरज के ‘आइकॉन्स’
जो ढँकते रहते हैं
अनगिनत तारों के छोटे-मोटे फाइल्स या फोल्डर्स     
अंतरनेत्र (इंटरनेट) में झाँक कर देखो
खुलेंगे हज़ारों ‘विंडो’,
एक मेला सा लगा रहता है हर ‘विंडो’ के अन्दर
रौनक़ें रहती हैं उस मेले में   

पर मेरे भीतर के आकाश में
तम का घर है
'फॉरमेटिंग' की जरूरत है उसे 
फिर कोई 'एंटी-वायरस' भी लोड करना होगा
रौशन करने के लिए
यह आकाश....!!

3..

हर शाम
चराग जलते ही
अपने बुझे हुए चाँद और सूरज लिए
मन के 'डेस्कटॉप' पर
रह-रह कर उभर आते हैं                      
अंतर्मन से कुछ पुराने ‘पोस्ट्स’            
आदतन मैं भी ‘रिस्टोर’ किए देता हूँ
’रिसाइकल बिन’ से वे ‘पुराने फाइल्स’         
संस्कारी हूँ, घर आए अतिथि को
यूँ ही वापस नहीं लौटा सकता
पाँव फैला कर बैठ जाते हैं
मेरे आँगन में फिर ये मेहमाँ
खातिर-तवज्जो के बावजूद जल्दी नहीं उठते
और मैं सोचता रहता हूँ
जीवन क्या है?

जीवन भूल जाने और फिर याद करने का
एक लम्बा सिलसिला 
ही तो है....